Sunday, 4 March 2018

ज्योति तिवारी की नई कविता

बेरंग शाम में मेरी तरफ पीठ किये बैठा वह लड़का
मुझे देखकर नहीं मुस्कुराने की
अनचाही कोशिश करता है
और कानों में ईयरफोन लगा टहलने लगता है
जैसे कि मुझसे सदियों से नाराज हो
कि उसकी तेज घूमती चकरी को
मैंने ही अपनी उँगली फँसा रोका है
कि वह ढ़लते सूरज को भी
पूरब में ही टँगा पाना चाहता है
कि उसे पूरब और सूरज
अपनी जेब के रूमाल और सिक्के लगते हैं
वह लड़का जो मेरा किशोरवय प्रेमी था
अब दूध बेचता है
और रोज शाम चाय की चुस्कियों में खोया
लापरवाही से बेटी के कनटोप ठीक करता है
अक्सर ही अपने अनदेखेपन में
वह मुझे उलाहना देता है
कि कविताओं में दूध बेचते प्रेमी नहीं आते
वे अपने घर के किसी अजनबी
सुकूनी कोने की तलाश में तरसते रहते हैं
वह टिमटिमाती बिलौटी आँखों वाला लड़का
जो साँझ का पत्रकार है
जिसे सुनते हुए मेरी बालियाँ मुस्कुराती हैं
वह दुनियाँ के मोबाइल होने पर यकीं करता है
इस बात से अनजान
कि वह उस कहानी का प्रमुख पात्र है
जिसकी भूमिका में लिखा है
कि दुनियाँ को आँखों और टिमटिमाहट की आपात जरूरत है
वह छोटा बच्चा जो अभी-अभी मेरी बगल से गुजरा है
जिसका रटा वाक्य है कि पढ़ने से भलाई नहीं होती
और आसमान की सारी पतंगें पापा की है
वह दुनियाँ का सबसे सयाना बच्चा है
जो राजनीतिहीन राजनीतिज्ञ है
वह मेरे दरवाजे पर मासूम बन रोता है
और अपने दरवाजे पर ढ़िठाई से मुँह चिढ़ाता है
मुझे इन सबसे ठोस प्रेम है ऐसा मुझे लगता है
कि तभी लड़को का झुंड
ऊँची छलांग की उल्लसित बातें करता
तेज कदमों से रास्ता नापता है
मैं इनके झुंड का अटूट हिस्सा होना चाहती हूँ
कि तभी ये अलग रास्तों पर अकेले हो जाते हैं
और मैं लौटती रेल की
पटरियों सी उदास ठहर जाती हूँ।।
© ज्योति तिवारी

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