Saturday, 3 March 2018

जीवन संध्या पर खुशी (लघुकथा) - Er S. D. Ojha

उसका नाम रधिया था । रधिया पासवान । उसका घर गांव से बाहर उत्तर दिशा में था । उसकी बिरादरी एक टोले के रूप में बसी थी । मैं दीपक पाण्डेय एक कुलीन घराने का सरयू पारीण ब्राह्मण था । रधिया मेरे साथ हीं पढ़ती थी ।  वह अक्सर मजाक में कहती - "रावण का श्राद्ध खाने वाले कुलीन ब्राह्मण कैसे हुए ?  थोड़े से जमीन पर कोई कहीं अपना ईमान बेचता है भला ?"

                            कहते हैं कि राम पर रावण के हत्या का पाप लगा था । रावण ब्राह्मण था । ब्रह्म हत्या के पाप का निवारण ब्राह्मण हीं कर सकते थे । बहुत से ब्राह्मण तैयार नहीं थे । ले देकर कुछ ब्राह्मण तैयार हुए । रावण का विधिवत श्राद्ध हुआ । ब्राह्मणों ने भोजन किया । खुश होकर राम ने उन्हें सरयू पार की जमीन दान में दे दी । तब से ये ब्राह्मण सरयू पारीण ब्राह्मण कहलाए । रधिया को किसी ने यह बात बताई थी । उसके हाथ में ब्रह्मास्त्र था । उसका वह हर समय उपयोग करती थी । मैं भी गुस्से में आकर उसकी चोटी खींच देता । उसकी पीठ पर एक धौल जड़ देता । रधिया एक कदम और आगे बढ़ जाती । वह मुझे "दीपकवा महपातरवा" कह कर चिढ़ाती । मेरा घर चौरास्ता पर था । वह अक्सर शाम को मेरे घर के आगे से गुजरती । वह तरह तरह से मुंह बनाती मुझे चिढ़ाती। मैं अपने बाबा का ख्याल कर मन मसोस कर रह जाता ।

समय अपने गति से बढ़ता रहा । हम दोनों एक साथ पढ़ते हुए इण्टर की परीक्षा भी पास कर गये । इण्टर के बाद वह पास के डिग्री काॅलेज में पढ़ने लगी । मेरा एडमिशन इंजीनियरिंग काॅलेज गोरखपुर हो गया । मैं पहली बार घर से बाहर जा रहा था । मां रो रही थी । पिता सामान्य होने की कोशिश कर रहे थे । बाबा गुजर गये थे । मैं सोच सकता हूं कि उनकी हालत भी कोई खास अच्छी नहीं होती । घर का लाड़ला जा रहा था । रधिया चिढ़ा रही थी । अच्छा है गांव एक निकृष्ट ब्राह्मण के बोझ से कुछ दिन चैन की सांस लेगा । मैं गोरखपुर चला गया । कुछ महीनों बाद तीन चार दिनों की छुट्टियां पड़ीं । मैंने इस सुयोग को हाथ से जाने नहीं दिया । गांव आ गया । सबसे मिला । बचपन के दोस्त जिन्होंने पढ़ाई छोड़ दी थी , वे तनिक दूरी रख रहे थे । शाम को रधिया भी मेरे घर के सामने से गुजरी । मैं उसकी तरफ से किसी कटाक्ष की उम्मीद कर रहा था । पर उसकी आंखों में एक अव्यक्त सी उदासी तैर रही थी । वह कुछ कमजोर भी नजर आ रही थी । मैं इस हालत में उससे कुछ भी बोल नहीं पा रहा था । थोड़ी देर बाद वही बोली - " तुम चले गये थे । कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था । तुम्हारा ये घर सूना सूना सा लग रहा था । " मेरे भी हृदय में प्रेम रस का प्रवाह पहली बार हुआ । दूर ग्रामोफोन पर एक गीत बज रहा था - वो पास रहें या दूर रहें , नजरों में समाए रहते हैं......।

                            अब मैं जब भी गांव आता मेरी नजरें रधिया को ढूंढती । रधिया भी किसी न किसी बहाने से शाम को मेरे घर की तरफ आ जाती । हम खड़े खड़े आंखों आंखों में शाम की दहलीज पर बातें करते । मुंह से कुछ नहीं कहते । हम सहपाठी थे । इसलिए हमारे मिलने पर किसी को एतराज नहीं था । वह मेरे घर भी आ जाती । हमें इश्क का वह रोग लग गया था , जो "लगाए न लगे, बुझाए न बुझे " वाला था । । मेरी इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी हो गयी थी । नौकरी भी लग गई थी । अब शादी के लिए तिलकहरू दुआर कोड़ने लगे थे । एक शाम रधिया मिली । उस दिन मैं अपनी नौकरी पर जा रहा था । उसकी आंखें दर्द से छलक रहीं थीं । उसने छूटते हीं पूछा - मेरा कसूर बताओ । मैं उसका कसूर नहीं बता सका । मैंने उसका हाथ पकड़ा । उसे अपने साथ ले लिया । उसने भी कोई प्रतिरोध नहीं किया । शाम  का झिटपुटा हो रहा था । सब घरों से रसोई के धुएं उठ रहे थे । दो प्रेमी दो पक्षी एक आशियां बनाने निकल पड़े थे । हां ,हमने अपना आशियां बनाया ।  मैंने बाद में पिता को सारी जानकारी पत्र के मार्फत दे दी । पिता चुप रहे , लेकिन मां का रो रो कर बुरा हाल हो गया । मां बाबूजी ने किसी को नहीं बताया कि मैं रधिया को भगाकर ले गया हूं । प्रचार यही किया गया कि मैंने अपने कार्य क्षेत्र के किसी कलिग की लड़की से शादी कर ली है । तिलकहरू का अब हमारे दरवाजे पर तांता लगना बंद हो गया था । रधिया के मां बाप ने यही सोचा कि वह किसी के साथ भाग गई है । उन्होंने बेटी को अपनी तरफ से मरा हुआ समझ लिया था ।

                                          कानपुर पहुंचकर हमने कोर्ट मैरिज कर ली । रधिया की जिद थी कि कोर्ट मैरिज के साथ साथ अग्नि को साक्षी मानकर वह मेरे साथ फेरे भी ले । उसे शादी का जोड़ा पहनने का शौक था । मुझे यह फिजूल खर्ची लगी । मैंने इंकार कर दिया । रधिया के साथ मेरा जीवन पंख बन उड़ने लगा था । तीन बच्चे हुए । एक लड़की दो लड़के । मां बाबूजी दो तीन महीने में आकर मिल जाते । मैं रधिया व बच्चों को गांव नहीं ले जा सका । इससे रधिया की अस्मिता पर आंच आती । बच्चे बड़े हुए । पढ़े लिखे । नौकरी किए । उनकी भी शादियां की । इस बीच मां बाबूजी का भी देहावसान हो गया । मेरे नाती पोते हुए । रधिया मेरा ख्याल पहले की अपेक्षा और ज्यादा करने लगी थी । बहुओं के होते हुए वह स्वंय मेरे लिए बेड टी बनाती । एक दिन मैं और रधिया बैठे हुए थे । क्या खोया पाया कि चर्चा चल रही थी । रधिया ने कहा कि उसने जीवन में पाया हीं पाया है । खोया कुछ भी नहीं । हां ,एक चीज वह आज भी मिस करती है । उसने शादी का लाल जोड़ा नहीं पहना । बात मुझे भी सही लगी । मेरी गलती थी । मैंने हीं पारम्परिक विवाह के लिए मना किया था । मैं अपने को दोषी मान रहा था । अचानक मैंने फैसला किया । हम फिर से शादी करेंगे । रधिया लाल जोड़ा पहनेगी । बेटे पोते हंस रहे थे । मैंने ठान लिया तो ठान लिया । दृढ़ प्रतिज्ञ होने से दुविधा की बेड़ियां कट जाती हैं । मेरी कोई दुविधा नहीं रही । रधिया ने लाल जोड़ा पहना । धूम धाम से शादी हुई । नाती पोते शादी में खूब नाचे ।

                                         रात को हम नये नवेले जोड़े की तरह सोए । सुबह बिना बेड टी के मेरी नींद नहीं खुलती थी । उस दिन नींद भी मेरी जल्दी हीं खुल गई । मैंने एक आंख खोली । तिपाई पर चाय की प्याली नहीं थी । दोनों आंख खोली । तिपाई पर वास्तव में चाय नहीं थी । मैंने एहतियातन तिपाई पर हाथ मारा । चाय का वहां सचमुच हीं कोई अता पता नहीं था । मैंने बगल में देखा । वहां रधिया सोई पड़ी है । मैंने उसे झिझोड़ा । वह उठ बैठी । मैंने चाय नहीं मिलने की शिकायत की । रधिया मुस्कुराई । बोली - मैं " दीपकवा महपातरवा " की नौकरानी नहीं हूं । मैं अब दीपक पाण्डेय की पत्नी हूं । जिसको चाय पीना हो वो खुद बनाए और पिए ।" ऐसा कहते हुए उसके चेहरे पर एक इन्द्रधनुषी आभा बिखर रही थी । वह शादी के लाल जोड़े में बला की खूबसूरत लग रही थी ।

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