Friday 25 May 2018

नरेश सक्सेना की दो कविताएँ कोणार्क सूर्य मंदिर और तूफान

कोणार्क सूर्य मंदिर

सूर्य मंदिर के भीतर इतना अंधकार
यह मंदिर सूर्योदय का है कि सूर्यास्त का?
लेकिन यहां बताने वाला कोई नहीं
सात पहियों के बावजूद यह रथ चलता नहीं है
पत्थर का रथ और पत्थर के पहिये
घोड़े भी होते तो क्या पत्थर के ही होते,
लेकिन पत्थर के होते तो कहीं और
चले कैसे जाते
रोशनी के रथों में आज भी
घोड़े नहीं, आदमी ही जोते जाते हैं
बिजली के खंभों से नहीं आती बिजली,
बिजलीघरों से भी नहीं आती वह
बहुत दूर कोयला खदानों के नीम अंधेरे में
कोयला खनते मजदूरों के सीने से निकलती है
जो अक्सर खून की उल्टियां करते,
हांफते हुए
या धसकी हुई सुरंगों में जिंदा दफ्न होकर
मरते हैं
कोणार्क में इन दिनों सैकड़ों कारीगर लगे हैं
मंदिर की मरम्मत में
लेकिन सब जानते हैं
यह रथ चलने वाला नहीं है
चलने के लिए इसे शायद बनाया ही नहीं था
आर्यभट के सिद्धांत को सिद्ध करने
जिसने कहा था कि सूर्य नहीं
पृथ्वी भ्रमण करती है
(सूर्य का यह रथ चलता
तो शायद कभी लखनऊ भी आ जाता)
सोचता हूं, सूर्य का
आकाश जैसा विशाल और भव्य मंदिर होते हुए
इसे बनाने का विचार किसी को आया ही क्यों
लेकिन यहां बताने वाला कोई नहीं।
* * *

|| तूफ़ान ||

उसे हुदहुद कहो या बुलबुल
उसका सिर्फ नाम बदलता है
काम नहीं बदलता
वह बिला वजह पेड़ों को उखाड़ देता है
नावों को डुबो देता है
और झोपड़ियां उजाड़ देता है
अपनी ताकत से अंधेरा फैलाता हुआ
राहत की बात यह
कि उसकी सारी ताकत उसकी रफ्तार में होती है
इसलिए जितनी तेजी से आता है
उतनी तेजी से गुजर जाता है
सबसे ज्यादा विचलित करता समुद्र को
लेकिन एक और समुद्र होता है
मनुष्यों का
जहां एक दिन बदलता है मौसम
और उठ खड़ा होता है तूफान, जो
उसकी तरह अंधा नहीं होता
वह झोपड़ियों को नहीं उजाड़ता
लेकिन राजभवनों को बख्शता भी नहीं
उसकी तारीखें
मौसम विभाग के दफ्तर से जारी नहीं होतीं।

नरेश सक्सेना

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