Sunday, 6 May 2018

शिवांगी चौबे की कविता मैंने भगवान को देखा है।

मैंने भगवान को देखा है।

किनारों पर कच्चा सा,
बीच में जला हुआ,
थोड़ा टेढ़ा, थोड़ा गोल,
परथन से लिपट कर भरभरा,
घी से चुपड़ कर मुलायम,
छुआ है मैंने भगवान को,

कभी मिट्टी सा सोंधा,
कभी गैस जैसी खुशबू,
कभी ताज़ा, कभी बासी,
कभी गीला, कभी पापड़,
किसी गलियारे में फेंकते,
कभी कटोरे में सब्जी के साथ,
मैंने लपका है भगवान को,

अख़बार में मोड़ कर,
स्टील की थाली में,
कुत्ते के मुँह से आधा सा,
दो इंच से थोड़ा ज़्यादा सा,
अधजला, अधपका,
ढाबे के बाहर टोकरे से,
उठाया है मैंने भगवान को,

बेटे की बीमारी में,
दवा से पहले,
दूध से पहले,
इज़्ज़त से पहले,
लाचारी के बाद,
घर घर जा कर,
माँगा है मैंने भगवान को,

रात को पानी पी कर,
सुबह को मुँह ताक कर,
दिन दिन अंतड़ियां गिन कर,
मेरी बकरी के मरने के बाद,
जिस दिन मिलती हैं रोटियाँ,
हाँ, मैं देखता हूँ भगवान को!

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