बबूल का पेड़
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उसे कोई नहीं लगाता
अपने आप अपनी तरह उगता है
जैसे वह पश्चाताप की विरुद्ध खड़ा होता है धीरे-धीरे
अपनी बदसूरती में भी लहराता हुआ
आत्ममुग्ध नहीं होता
खटकता है कई लोगों की आँखों में
रूप अरूप के पार
अपनी रक्षा में रचता है काँटे
कई के तलवों का स्वाद चखता
मेरा बहुत वास्ता रहा इससे
बचपन से लगाकर आज तक भी
दादा इसी से बागड़ बनाते थे खेतों के आसपास
मेरे पाँव में इसके काँटों छाप अभी तक है
इसके बेगन्ध फूल मुझे लुभाते हैं आज भी
यह धँसा हुआ है आज भी मेरी स्मृति में
मुझे याद आती है वो चुलबुली लड़की
जो इसके पापड़ों से बना लेती अपने लिए पायल
आज भी उसकी खनक के पीछे
दौड़ लगाता काँटों के पार निकल जाता हूँ
लेकिन वह वहाँ अब नहीं मिलती ।
- बहादुर पटेल
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