विभा रानी
कैंसर का धुआं!
सिगरेट का धुआं
धुएं में भविष्य
भविष्य में वर्तमान,
वर्तमान में अतीत
सिगेरट का धुआं,
जीवन का धुआं!
कैंसर - अविकल, अविचल!
हम समझदार हैं,
वर्तमान हमसे कांपता है,
भविष्य हम पर इतराता है,
अतीत मुंह चुराता है,
वक्त के जबड़े में हम
हमारी हथेली में सिगरेट, धुआं, शराब,
तम्बाकू, गुटखा और
अपने होने का ताकतमय एहसास,
अदम्य है आकर्षण
नीति शोभती हैं किताबों में,
हम हैं अविरल, अविकल, अविचल!
गांठ
गांठ
मन पर पड़े या तन पर
भुगतते हैं खामियाजे तन और मन दोनों ही
एक के उठने या दूसरे के बैठने से
नहीं हो जाती है हार या जीत किसी एक या दोनों की।
गांठ पड़ती है कभी
पेड़ों के पत्तों पर भी
और नदी के छिलकों पर भी।
गांठ जीवन से जितनी जल्दी निकले
उतना ही अच्छा।
पड़ गए शगुन के पीले चावल,
चलो, उठाओ गीत कोई।
गांठ हल्दी तो है नहीं
जो पिघल ही जाएगी
कभी न कभी
बर्फ की तरह।
गांठ : मनके-सी!
एक दिन
मैंने उससे कहा
देखो न!
गले में पड़े मनके की तरह
उग आई हैं गांठें।
क्या ऐसा नहीं हो सकता कि
गले से उतारकर रखी गई माला की तरह ही
हौले से गांठ को भी निकालकर
रख दें किसी मखमली डब्बे में बंद
उसकी आंखों में दो मोती चमके
और उसने घुट घुट कर पी लिया अपनी आंखों से
मेरी आंखों का सारा पानी।
गांठ गाने लगी आंखों की नदी की लहरों की ताल पर
हैया हो... हैया हो...
माझी गहो तवार, हैया हो..।
छोले, राजमा, चने सी गांठ!
उपमा देते हैं गांठों की
अक्सर खाद्य पदार्थों से
चने दाल सी, मटर के साइज सी
भीगे छोले या राजमा के आकार सी
छोटे, मझोले, बड़े साइज के आलू सी।
फिर खाते भी रहते हैं इन सबको
बिना आए हूल
बगैर सोचे कि
अभी तो दिए थे गांठों को कई नाम-उपनाम
उपनाम तो आते हैं कई-कई
पर शायद संगत नहीं बैठ पाती
कि कहा जाए-
गांठ-
क्रोसिन की टिकिया जैसी
बिकोसूल के कैप्सूल जैसी।
सभी को पता है
आलू से लेकर छोले, चने, राजमे का आकार-प्रकार
क्या सभी को पता होगा
क्रोसिन-बिकोसूल का रूप रंग?
गांठ को जोड़ना चाहते हैं-
जीवन की सार्वभौमिकता से
और तानते रहते हैं उपमाओं के
शामियाने-चंदोबे!
कैंसर का जश्न!
क्या फर्क पड़ता है!
सीना सपाट हो या उभरा
चेहरा सलोना हो या बिगड़ा
सर पर घने बाल हों या हो वह गंजा!
जिंदगी से सुंदर,
गुदाज
और यौवनमय नहीं है कुछ भी।
आओ, मनाएं,
जश्न- इस यौवन का
जश्न- इस जीवन का!
पॉप कॉर्न सा ब्रेस्ट!
पॉप कॉर्न सा उछलता
बिखरता ब्रेस्ट कैंसर।
यहां-वहां, इधर-उधर
जब-तब, निरंतर।
प्रियजन,
नाते-रिश्तेदार
हित-मित्र, दोस्त-यार।
किसी की मां
किसी की बहन
किसी की भाभी
किसी की बीबी
कोई नहीं तो अपनी पड़ोसन।
दादी-नानी भी नहीं है अछूती
न अछूता है रोग।
आने पर ब्रेस्ट कैंसर की सवारी
खोजते हैं आने की वजह?
लाइफ स्टाइल?
स्ट्रेस?
लेट मैरिज?
लेट संतान?
एक या दो ही बच्चे?
नहीं कराया स्तन-पान?
डॉक्टर और विशेषज्ञ हैं हैरान
नहीं पता कारण
नहीं निष्कर्ष इतना आसान
हर मरीज के अपने लक्षण
अपने-अपने कारण।
पूछते हैं सवाल एक से- कैसे हो गया?
जवाब जो होता मालूम
तो फेंक आते किसी गठरी में बांधकर
किसी पर्वत की ऊंचाई पर
या पाताल की गहराई में
पॉप कॉर्न से कैंसर के ये दाने।
कैंसर- जीवन का एक पड़ाव!
अपना हौसला
अपनोें का प्यार
अपना इलाज
अपनी देखभाल
एक अपना सा अहसास
सांस के साथ
इत्ता भर तो चाहिए
जिंदगी के हर मोड़ पर।
कैंसर भी इसी जीवन का है एक पड़ाव-
जिसकी जलती धूप में
मिलती है आशाओं की छांव।
मन को ना मारो
मन को ना हारो
मन को ना रोको
मन को ना टोको।
मन से बस इतना ही कहो
यह सबकुछ जो है, अपना है, अपना!
जियेंगे इसी अपने की धूप-छांह के संग
कैंसर हो या काली रात!
कैंसर का राग!
दस मिनट में ही हांफ जाती है सांस
चलने या बोलने में।
सीना बजाने लगता है धौंकनी का राग
सर छेड़ता है तान गिन-गिन का
मन घूमता है गोल गोल या तन
पता नहीं चल पाता कुछ भी।
सब जैसे एक में गड्ड-मड्ड।
नाखूनों पर चढ़ गया है गाढ़े गुड़ सा पॉलिश
नसों में फैल चुका है केमो का काला संजाल
मुंह में छाले और पेट में आग का जंगल
कहां समा ले जाता है सारा खाना
खोज पाया है जंगल में भला इनका सामान कोई
बदन की दर्द भरी ऐंठन ता थई ता थई बोले
या नाचे बीथोवेन की दर्द भरी कसकती धुन पर।
या ठुमके जैज, वायलिन या गिटार पर
या पंजाबी या बॉलीवुड के गीतों की धुन पर।
जमती हवा पिघलकर निकलती है बदन के हर रास्ते
बादल से भी बड़ा और आसमान से भी ऊंचा राग है
कैंसर और केमो का
बच तो सकते नहीं,
तो आओ मनाएं जश्न
कैंसर के राग का,
केमो के फाग का
यकीनन इसी से निकलेगा
राग जीवन का!
भीगे कंबल सा माहौल!
आप मानें या न मानें
पल भर को हो तो जाता है
भीगे कंबल सा भारी माहौल
सूखे मलमल सा हल्का भी,
जब डॉक्टर करता है मजाक
एक हलकी मुस्कान के साथ-
‘वेलकम टू द वल्र्ड ऑफ कैंसर’ या
‘केमो डोंड सूट एनीवन!’
जब देता है उदाहरण कैंसर सेल्स का आतंकवादी से
और इलाज को एनएसजी कमांडो से।
उसे भी पता है और मरीज को भी कि
बड़े-बड़े मेडिकल टम्र्स से नहीं हो सकता भला
आम मरीज का
उन्हें समझाने के लिए सुनाने ही पड़ेंगे किस्से
दादी-नानी की तरह
सुननी ही पड़ेगी बकवास जैसी जिज्ञासाएं मरीजों की।
समझाना ही पड़ेगा, दिलाना ही होगा यकीन का झुनझुना
और उसके नीचे से कराने होंगे सारे कागजादों पर दस्तखत...
कि हो रहा है यह इलाज रोगी की इच्छा से।
होने पर कोई ऊंच-नीच,
नहीं होंगे हम जिम्मेदार।
हमारी गर्दन और नाई का उस्तरा
देना हमारी मजबूरी हो,
चलाना उनका अधिकार!
क्या यह संभव है कि हर व्यक्ति रखे हर मेडिकल टर्म
या जीवन के हर क्षेत्र की जानकारी?
इसीलिए डॉक्टर करते हैं हल्का माहौल
छोड़ते हैं एकाध पीजे,
बनाते हैं अपनी रणनीति
सर्फ कर देते हैं तारीफ उनके गुणों की।
फलता-फूलता है इस तरह से मेडिकल व्यवसाय।
वो सहाय, हम निस्सहाय।
उनकी बढ़ती और हमारी खाली होती जाती गठरी।
मोटापा कठरी और मन का-
सुनिश्चित तो करना है आपको ही
इसलिए सीखना होगा मुस्काना-आपको भी
और आपको ही।
छोले, राजमा, चने सी गाँठ!
उपमा देते हैं गांठों की
अक्सर खाद्य पदार्थों से
चने दाल सी, मटर के साइज सी
भीगे छोले या राजमा के आकार सी
छोटे, मझोले, बड़े साइज के आलू सी.
फिर खाते भी रहते हैं इन सबको
बिना आए हूल
बगैर सोचे कि
अभी तो दिए थे गांठों को कई नाम-उपनाम
उपनाम तो आते हैं कई-कई
पर शायद संगत नहीं बैठ पाती
कि कहा जाए –
गाँठ –
क्रोसिन की टिकिया जैसी
बिकोसूल के कैप्सूल जैसी.
सभी को पता है
आलू से लेकर छोले, चने, राजमे का आकार-प्रकार
क्या सभी को पता होगा
क्रोसिन-बिकोसूल का रूप-रंग?
गाँठ को जोड़ना चाहते हैं –
जीवन की सार्वभौमिकता से
और तानते रहते हैं उपमाओं के
शामियाने-चंदोबे!
कैंसू डार्लिंग! किस्सू डियर!!
मेरा ना.......म है – कैंसर!
प्यार से लोग मुझे कुछ भी नहीं कहते.
न कैंसू, न किस्सू, न कैन्स.
और तुम्हारा नाम क्या है –
सुषमा, सरोज, ममता या अम्बा.
रफ़ी, डिसूजा, इस्सर, जगदम्बा.
उस रोज
रात भर बजती रही थी
शहनाई, बांसुरी, ढोलक की बेसुरी धुन!
खुलते रहे थे दिल और दिमाग के
खिड़की – कपाट.
मन चीख रहा था गाने की शक्ल में
दे नहीं रहा था ध्यान सुर या ले पर.
हुहुआ रही थी एक ही आंधी
डुबा रही थी दिल को – एक ही धड़कन
कैसे? कैसे ये सब हुआ??
क्यों? और क्यों ये सब हुआ?
कैंसर!
मुझे पता है तेरा नाम
दी है अपने ही घर के तीन लोगों की आहुति
फिर भी नहीं भरा तुम्हारा पेट जो
आ गए मेरे पास?
और अब गा रहे हो बड़ा चमक-छमक के, कि
मेरा ना......म है कैंसर!
और कर भी रहे हो शिकायत कि
नहीं लोग पुकारते हैं तुम्हें प्यार से
किस्सू डियर या कैंसू डार्लिंग!
आओ,
अब, जब तुम आ ही गए हो मेरे सीने में
मेरे दिल के ठीक ऊपर
जमा ही लिया है डेरा
तो कह रही हूँ तुम्हें
कैंसू डार्लिंग, किस्सू डियर!
खुश!
लो, पूरी करो अपनी मियाद
और चलते बनो
अपने देस-नगर को,
जहां से मत देना आवाज किसी को
न पुकारना किसी का नाम
इठलाकर, बल खाकर
ओ माई कैंसू डियर!
ओ माई किस्सू डार्लिंग!!
ब्रेस्ट कैंसर.
अच्छी लगती है अंग्रेजी, कभी कभी
दे देती है भावों को भाषा का आवरण
भदेस क्या! शुद्ध सुसंस्कृत भाषा में भी,
नहीं उचार या बोल पाते.
स्तन – स्तन का कैंसर
जितने फर्राटे से हम बोलने लगे हैं –
ब्रेस्ट – ब्रेस्ट कैंसर!
नहीं आती है शर्म या होती है कोई झिझक
बॉस से लेकर बाउजी तक
डॉक्टर से लेकर डियर वन्स तक को बताने में
ब्रेस्ट कैंसर, यूट्रेस कैंसर.
यह भाषा का सरलीकरण है
या भाव का भावहीनता तक का विस्तार
या बोल बोल कर, बार बार
भ्रम – पाने का डर से निजात
ब्रेस्ट कैंसर, ब्रेस्ट कैंसर, ब्रेस्ट
ब्रेस्ट, ब्रेस्ट, ब्रेस्ट कैंसर!
तुम और तुम्हारी वकत ओ स्तन!
याद नहीं,
पर आते ही धरती पर
मैंने तुम्हें महसूसा होगा
जब मेरी माँ ने मेरे मुंह में दिया होगा – तुम्हें.
यहीं से शुरू हो जाता है
हर शिशु का तुमसे नाता
जो बढ़कर उम्र के साथ
बन जाता है माँ से मादा तक का हाथ –
छूता, टटोलता, कसता
या घूम जाता तुम्हारी गोलाई में.
इधर-उधर के ताने-बाने के साथ.
तुम्हें ही मानकर पहेली
तुम्हीं के संग बनकर सहेली
खेली थी होली
की थी अठखेली
भाभी संग, संग ननद के भी
जब मुंह के बदले बोली थी
स्तन की बोली.
मेरी समझ में आया था
क्या है वकत तुम्हारी
तुमसे ही होती है पहचान हमारी
ओ मादा! ओ औरत ज़ात!
कितना बड़ा हिस्सा है देह के इस अंग का
तुम्हारे साथ!
जनाना चीज
बचपन में ही चल गया था पता
कि बड़ी जनाना चीज है ये.
मरे जाते हैं सभी इसके लिए
छोकरे- देखने के लिए
छोकरियाँ-दिखाने के लिए
बाज़ार- बेचने और भुनाने के लिए
सभी होते हैं निराश
गर नहीं है मन-मुआफिक इसका आकार!
बेचनेवाले कैसे बेचें उत्पाद
ब्रेसरी की मालिश की दवा
कॉस्मोटोलोजी या खाने की टिकिया
पहेलियां भी बन गईं- बूझ-अबूझ
‘कनक छड़ी सी कामिनी, काहे को कटि छीन?
कटि को कंचन काट विधि, कुचन मध्य धरि दीन!’
ये तो हुआ साहित्य विमर्श
बड़े-बड़े देते हैं इसके उद्धरण
साहित्य से नहीं चलता जीवन या समाज.
सो उसने बनाया अपना बुझौअल और बुझाई यह पहेली-
गोर बदन मुख सांवरे, बसे समंदर तीर
एक अचंभा हमने देखा, एक नाम दो बीर!
वीर डटे हुए हैं मैदान में
कवियों के राग में
ठुमरी की तान में
‘जब रे सिपाहिया, चोली के बन्द खोले,
जोबन दुनु डट गई रात मोरी अम्मा!’
खुल जाते हैं चोली के बंद
बार-बार, लगातार
सूख जाती है लाज-हया की गंगा
बैशाख-जेठ की गरमी सी
खत्म हो जाती है लोक-लाज की गठरी
आंखों में बैठ जाता है सूखे कांटे सा
कैंसर!
उघाड़ते-उघाड़ते
जांच कराते-कराते
संवेदनहीन हो जाता है डॉक्टर संग
मरीज भी!
2
अनामिका
ब्रेस्ट कैंसर
(वबिता टोपो की उद्दाम जिजीविषा को निवेदित)
दुनिया की सारी स्मृतियों को
दूध पिलाया मैंने,
हाँ, बहा दीं दूध की नदियाँ!
तब जाकर
मेरे इन उन्नत पहाड़ों की
गहरी गुपफाओं में
जाले लगे!
‘कहते हैं महावैद्य
खा रहे हैं मुझको ये जाले
और मौत की चुहिया
मेरे पहाड़ों में
इस तरह छिपकर बैठी है
कि यह निकलेगी तभी
जब पहाड़ खोदेगा कोई!
निकलेगी चुहिया तो देखूँगी मैं भी,
सर्जरी की प्लेट में रखे
खुदे-पफुदे नन्हे पहाड़ों से
हँसकर कहूँगी-हलो,
कहो, कैसे हो? कैसी रही?
अंततः मैंने तुमसे पा ही ली छुट्टी!
दस बरस की उम्र से
तुम मेरे पीछे पड़े थे,
अंग-संग मेरे लगे ऐसे,
दूभर हुआ सड़क पर चलना!
बुल बुले, अच्छा हुआ, पफूटे!
कर दिया मैंने तुम्हें अपने सिस्टम के बाहर।
मेरे ब्लाउज में छिपे, मेरी तकलीपफों के हीरे, हलो।
कहो, कैसे हो?’
जैसे कि स्मगलर के जाल में ही बुढ़ा गई लड़की
करती है कार्यभार पूरा अंतिम वाला-
झट अपने ब्लाउज से बाहर किए
और मेज पर रख दिए अपनी
तकलीपफ के हीरे!
अब मेरी कोई नहीं लगतीं ये तकलीपफें,
तोड़ लिया है उनसे अपना रिश्ता
जैसे कि निर्मूल आशंका के सताए
एक कोख के जाए
तोड़ लेते हैं संबंध
और दूध का रिश्ता पानी हो जाता है!
जाने दो, जो होता है सो होता है,
मेरे किए जो हो सकता था-मैंने किया,
दुनिया की सारी स्मृतियों को दूध पिलाया मैंने!
हाँ, बहा दीं दूध की नदियाँ!
तब जाकर जाले लगे मेरे
उन्नत पहाड़ों की
गहरी गुपफाओं में!
लगे तो लगे, उससे क्या!
दूधो नहाएँ
और पूतों फलें
मेरी स्मृतियाँ!
3
पवन करण
‘स्तन’
इच्छा होती तब वह उन के बीच धंसा लेता अपना सिर
और जब भरा हुआ होता तो तो उन में छुपा लेता अपना मुंह
कर देता उसे अपने आंसुओं से तर
वह उस से कहता तुम यूं ही बैठी रहो सामने
मैं इन्हें जी भर के देखना चाहता हूँ
और तब तक उन पर आँखें गडाए रहता
जब तक वह उठ कर भाग नहीं जाती सामने से
या लजा कर अपनी हाथों में छुपा नहीं लेती उन्हें
अन्तरंग क्षणों में उन दोनों को
हाथों में थाम कर वह उस से कहता
ये दोनों तुम्हारे पास अमानत हैं मेरी
मेरी खुशियाँ , इन्हें सम्हाल कर रखना
वह उन दोनों को कभी शहद के छत्ते
तो कभी दशहरी आमों की जोड़ी कहता
उन के बारे में उसकी बातें सुन सुन कर बौराई —
वह भी जब कभी खड़ी हो कर आगे आईने के
इन्हें देखती अपलक तो झूम उठती
वह कई दफे सोचती इन दोनों को एक साथ
उसके मुंह में भर दे और मूँद ले अपनी आँखें
वह जब भी घर से निकलती इन दोनों पर
दाल ही लेती अपनी निगाह ऐसा करते हुए हमेशा
उसे कॉलेज में पढ़े बिहारी आते याद
उस वक्त उस पर इनके बारे में
सुने गए का नशा हो जाता दो गुना
वह उसे कई दफे सब के बीच भी उन की तरफ
कनखियों से देखता पकड़ लेती
वह शरारती पूछ भी लेता सब ठीक तो है
वह कहती हाँ जी हाँ
घर पहुँच कर जांच लेना
मगर रोग , ऐसा घुसा उस के भीतर
कि उन में से एक को ले कर ही हटा देह से
कोई उपाय भी न था सिवा इस के
उपचार ने उदास होते हुए समझाया
अब वह इस बचे हुए एक के बारे में
कुछ नहीं कहता उस से, वह उस की तरफ देखता है
और रह जाता है, कसमसा कर
मगर उसे हर समय महसूस होता है
उस की देह पर घूमते उस के हाथ
क्या ढूंढ रहे हैं, कि इस वक्त वे
उस के मन से भी अधिक मायूस हैं
उस खो चुके के बारे में भले ही
एक-द्दोसरे से न कहते हों वे कुछ
मागत वह, विवश, जानती है
उसकी देह से उस एक के हट जाने से
कितना कुछ हट गया उन के बीच से
4
ब्रेस्ट कैंसर क्लीनिक
आर अनुराधा
एक :
वे औरतें
चुप हैं
कि डाक' साब
डिस्टर्ब न हो जाएँ
नाराज न हो जाएँ
दो :
एक मासूम-सा सवाल
"कहाँ से आती हैं आप?"
और फिर जुड़ते जाते हैं
तार से तार
जैसे जुड़ते हैं
ताश के पत्ते
एक से एक
पर गिरतीं नहीं उनकी तरह
एक पर एक
कोई गिरने को हो तो
दूसरी सँभालती है
तीसरी सँभालती है
कोई अपना दर्द बताती है
तो कोई उसे सहने-झँवाने का टोटका
किसी पर घर का बोझ है
तो कोई खुद घर पर
वे सब बनाती हैं मिलकर
एक दीवार
कीमोथेरेपी के अत्याचार के खिलाफ
होती हैं मजबूत
पाती हैं थोड़ी छाँव, थोड़ी राहत
उस दीवार की आड़ में
आखिर तो चलना उन्हें खुद ही है
उस दोपहरी में धूप-आँधी-बारिश में।
उनके आँचल को
टोहने-टटोलने की
कोई जरूरत नहीं
क्योंकि आँचल अब भी
उतना ही बड़ा है
समेटता है संसार भर की
स्मृतियाँ, आँसू, कमियाँ और अधूरापन
करता है सबको पूरा
एक से एक जोड़कर
तीन :
बाहर
और लोग बैठे हैं
वे बातें नहीं करते
कि उनके तार
जुड़ते नहीं आसानी से
उनके अपने झमेले हैं
चिंताएँ हैं
दुनिया है, तकलीफें हैं
इन सबसे बड़ी है
उनकी चुप
चार :
फिर वे सब
चले जाते हैं
ओ पी डी खत्म होने तक
दोपहर से शाम होने तक
बारी-बारी से
फिर मिलने के वादे के बिना
कौन जाने कब-कहाँ -
शायद अगले हफ्ते
तीन हफ्ते में
तीन महीने या
साल में
यहाँ या जाने कहाँ!
पाँच :
बेटी आई है दूर से
माँ का साथ देने
बेटा-पति काम पर हैं
थक गए हैं
या देख नहीं पाते इनके कष्ट
बेटी सब देखती-करती है
सँभाल कर क्लीनिक तक लाना
हड़बड़ी में, धक्कामुक्की में
डिस्काउंट में दवाएँ खरीदना
सावधानी से दवाएँ और पैसे माप-जोख कर
फिर लाइन में लगना
इंतजार करना बारी का
दूसरी के बैठने के लिए
सीट छोड़ना
वह सब सुनती-समझती है
डॉक्टर से पत्रिकाओं से इंटरनेट से
सर्जरी, रेडियोथेरेपी, कीमोथेरेपी
है क्या बला भला
जो उसे ही मारने पर उतारू हैं
जिसे बचाने का उनका मकसद ठहरा
पार करती है वह भी माँ के साथ
वह रासायनिक बाढ़
वो हथियार-औजार
वह मशीनी आग
घर आकर फिर -
बिस्तर ठीक कर देना चादर बदल देना
ताकि रहे माँ तरोताजा
अगली बार उठकर
अस्पताल जाने तक
खास बेस्वाद खाना बनाना
जबर्दस्ती खिलाना
और न खाते हुए देख पाना
माँ को
जिसने उसे बनाया
अपना खून देकर, दूध देकर
अपनी थाली का खाना
अपनी रजाई की गर्माहट
अपने हिस्से की नींद
अपने हिस्से के सपने देकर
वह देखती-करती है
माँ का लड़ना
उसे लड़ने के काबिल बनाए रखना
पूस की धूप का वो जो टुकड़ा
बस कुछ कदम आगे पड़ा है
उस तक पहुँचाती है
अपने हाथों की गुनगुनाहट से
माँ को नरमाते-गर्माते हुए
5
सोनिया बहुखंडी
ब्रेस्टकैंसर
------------
पृथ्वी सी चंचल मेरी देह में
उसे पसंद थी मेरी दोनों धुरियां
ये धुरियां जिंदगी में डूब कर
ऋतुएं बना रही थी
वो अक्सर खो जाता था ठंडी-गर्म
ऋतुओं के बीच,
और देखता था वहां से निकलती दूध की नदियों को
जिसकी याद अब तक मेरे बच्चे के होंठो पर है
ऋतुएं डूबती रहीं परिवर्तन की गर्म बाल्टी में
उभर आई धुरियों में दो पॉपकॉर्न सी गांठे
पृथ्वी सुन्न!
जड़ से काट दी गई गांठों वाली धुरियां
छूट गया दूध की सूखी नदी का निशान
और एक सपाट मैदान
जब कोई कहता पृथ्वी का अंत निकट है
वो उम्मीदों की हंसी घोलता और कहता-
तुम दुनिया की सबसे सुन्दर गंजी औरत हो
दर्द की अनंत गुफाओं को पार कर मैं बाहर निकलती
क्योंकि पृथ्वी की गति बंद नहीं होती
वह सूर्य के चक्कर काटती रहती है
हाँ मौत सहम के जीवन के अंत में जरूर खड़ी हो जाती है
सूखी नदियों के निशान ताकते ताकते जीवन ठहर जाता है
मेरे बेटे के होंठो में खिल जाते हैं धुरियों की यादों के फूल
उसके मुस्कराने से मौसम बदल रहा है।
प्रीति 'अज्ञात'
ब्रेस्ट कैंसर
मेरे कितने अपने चेहरे
जिन्हें लील लिया है तुमने
और वो भी जिनकी उपस्थिति
अब भी जीने की आस फूँकती है मुझमें
हर बार ही गुजरी हूँ क़रीब से
उनकी असहनीय पीड़ा में
देखा है बेबस आँखों ने
मातृत्व के झरने को कटते हुए
जैसे कोई बहता हुआ सोता
दूर कर दिया गया हो अचानक
अपनी उद्गम-स्थली से
तुम्हारी विशाल बहुगुणित कोशिकाओं का
निवारण ही एकमात्र किस्सा नहीं है, विज्ञान का
यह मांस-पेशियों को निर्ममता से कुरेदता
सम्पूर्ण जीवन-दर्शन है
जिसके दर्द की शिराएँ नहीं होती
किसी एक हिस्से तक ही सीमित
काले घने केशों का पतझड़ और
उभारों का देह में ही
धप्प-से विलुप्त हो जाना
तो बस.........
बाहरी बातें भर हैं, पर
दुःख के दरिया को भीतर तक
मसल-मसल घोंटती है यह प्रक्रिया
जाता है हाथ स्वत: ही उस विलीन भाग पर
हृदय बिलखता है चीख-चीखकर
और लाख ना-नुकुर के बाद भी
बंजर हुई भूमि पर
सिलिकॉन की छोटी गद्दियाँ
बना ही लेती हैं अपना आशियाना
यूँ भी होता है उसके बाद कभी कि
रंगीन स्कार्फ़ की छाँव तले
घुँघराले नन्हे बालों की आमद देख
एक बहादुर स्त्री दर्पण में फिर मुस्कुराती है
सँभालने लगती है अपना बसेरा
उम्मीद के मसनद पर टिका जीवन
कभी ठहरता, तो कभी चलता है अनवरत
इधर बच्चों की सपनीली दुनिया में
अठखेलियाँ करता है चमचमाता भरोसा
कि माँ अभी जीवित है!
- प्रीति 'अज्ञात'
सतीश सक्सेना
अगर तुम अस्वस्थ हो
कैसे उठें किलकारियां
अगर तुम भूखी रहीं ,
कैसे जमेंगी बाजियां ,
अगर तुम चाहो कि हम भी, छू सकें वह आसमां !
तब तो तुमको,स्वयं का भी,ध्यान रखना चाहिए !
याद रख , तेरी हँसी ,
जीवंत रखती है,हमें !
तेरी सेहत में कमी ,
बेचैन करती है,हमें !
जाना तो इक दिन सभी को, मगर अपनों के लिए
माँ, तुम्हे अपने बदन का , ध्यान रखना चाहिए !
कुछ बुरी बीमारियाँ
हैं ,ढूँढती रहती हमें !
कैंसर सीने में छिपकर
जकड़ता,जाता हमें !
वक्त रहते जांच करवा कर, जियें, सब के लिए !
कुछ तो अपने भी लिए ,अरमान रखना चाहिए !
तुमसे ही सुंदर लगे
संसार जीने के लिए
तुम नहीं,तो कौन है ?
हँसने, हंसाने के लिए
सिर्फ नारी ही जगत में,जीती गैरों के लिए
दूसरों की मदद करने , शक्तिरूपा चाहिए !
मायके की आंख भर
आयी तुझे ही यादकर
और मुंह में कौर न
जा पाए बच्चों के गले !
अगर मन में प्यार है ,परिवार अपने के लिए !
कैंसर बढ़ने से पहले , खुद संभलना चाहिए !
नारी आँचल में पले हैं ,
ट्यूमर घातक रोग के !
धीरे धीरे कसते जाते
रेशे, दारुण रोग के !
इनके संकेतों की हमको , परख होनी चाहिए !
कुछ तो माँ पापा की बातें, याद रखना चाहिए !
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