Sunday 27 May 2018

उमा शंकर सिंह परमार की कविता

एक आदमी
मुँह अन्धेरे चारपाई से उठता है
खाँसता है खखारता है
शहर के भीड भरे चौराहे पर खुद को खडा करता है
वह एक आदमी
दुनिया की तमाम योजनाओं से खदेडा हुआ
दौ तीन सौ रुपये मे आठ घन्टे के लिए बिक जाता है

किसी गाँव के शहर में तब्दील होने की
पहली शर्त
यही एक आदमी है
कुछ वर्ष पहले मेरे गाँव में
शहर नही था
अब सुबह के साथ ही शहर आबाद हो जाता है
और सूरज ढलने के साथ
शहर भी थका हारा चारपाई मे लेट जाता है

वह रात भर सोचता है
सोता है
खुद के अतीत को कोसता है
वह याद करता है
वह खेतों से भगाया गया
वह घर से भगाया गया
परधान ने मनरेगा से
कोटेदार ने रासन से भगा दिया
भगाए हुए ऐसे तमाम आदमी
खूबसूरत  शहर बन जाते हैं

भगाया हुआ आदमी
शहर के चौराहों को जिन्दा रखता है
फुटपाथ आबाद रखता है
सोते जगते जब कभी
विकास नारों में तब्दील होकर
शहर की तरफ भागता है
पुलिस प्रशासन व्यवस्था
सबसे पहले इस जिन्दा शहर को
पानी की तरह उलीचते हैं

भगाया हुआ आदमी
विकास के इस दौर में
कानूनन कचरा है
विकास और आजादी के बीच
औंधे पडे किसानों का
कचरे में तब्दील होना
इस सदी की
सबसे जरूरी , और संवैधानिक
घटना है

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