Thursday, 17 May 2018

गौरव पांडेय की किसान कविताएँ

खेत सब जानते हैं
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किसके घर है दो वक्त की रोटी
कौन एक जून पानी पीकर काटता है
किसके यहाँ पकते हैं व्यजंनों के प्रकार
और कौन पेट से घुटने सटाकर सोता है

खेत जानते हैं

किसान के घर कितनी औरतें हैं
कितने हैं बूढ़े और बच्चे कितने
जवान लड़कियाँ कितनी हैं
खेत जानते हैं
गांव के सारे शोहदों को
खेत भली-भाँति पहचानते हैं

खेत जानते रहते हैं
किस कंधे पर कितना कर्ज है
किसकी मेहरारू को कौन सा मर्ज है
किसकी बिटिया कब ब्याही जाने वाली है
हाड़-तोड़ मेहनत के बावजूद बखारी किसकी खाली है ?

बहुत मजबूरी में खेत विदा लेते हैं  किसान से
कुछ कर्ज के लिए तो कुछ मर्ज के लिए
तो कुछ फर्ज के लिए
मसलन बिटिया की विदाई के पहले
विदा ले लेते है किसान के सबसे अच्छे खेत

इस तरह किसान का बचपन यौवन ज़रा
उसने की है आत्महत्या
अथवा कैसे मरा
खेत जानते हैं !

जी हाँ ! ज्यादा सोचिए मत हमारी ही नहीं
आपकी पीढ़ियों का भी इतिहास
खेत भली-भांति जानते है

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एक ऋणग्रस्त किसान का एकालाप
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गेहूँ की बालियों और मकई के दानों में
गढ़ा रहा है दूध
घर की बेटियों  का गढ़ा रहा है खून
अब हम सरसों में फूल नहीं फलियाँ चाहते हैं।

बर्तन-टकराने और सूनी थालियां बजाने के
अलावा भी कोई संगीत है
हमें नहीं पता
बर्तनों के माँजन के साथ मंज गई है
हमारी देह भी
अब हमें दर्पण की कोई जरूरत नहीं है।

जरूरतें शाखों सी फैल पत्तों-सी फूट रही हैं
जरा सी हवा से तना काँप उठता है
पत्नी के बालों में गढ़ा गई है धूप
हाथ की रेखाएँ चेहरे पर उभर आई हैं
हमारी कमर भी पुराने पीपल की तरह
छाल छोड़ने लगी है।
.
परिवार का भविष्य नाज़ुक रस्सी से बंधा
छूँछ बाल्टी-सा कुँए में लटक रहा है
हम चाहते हैं हमारे बच्चे भी
कलम पकड़ें
हम हमेशा हारे जुआरी की तरह
कुछ और पैसों के जुगाड़ में लगे रहते हैं ।

हम जानते हैं
अब रौशनी कुछ लोगों की मुठ्ठियों में कैद है
बिजलियां खेलती हैं उनकी मुस्कान में
जिस ओर देखते हैं हँसकर होती है बारिस उधर ही
जिधर तने भृकुटि पड़ जाता है सूखा
हमारे हिस्से का सूरज अंधा है
धरती दिनों-दिन हो रही ऊसर
पुराने हुए हमारे बीज

जिसे ईश्वर कहते हैं उसका कोई पता नहीं...

ओ गणतंत्र देश के उत्सवी लोगो !
हमें समझाओ स्वतंत्रता-गणतंत्रता का अर्थ ?
हमारे लिए यह उस जुआ की तरह है
जो हमारे कंधों पर रखा है
और हम देश के मानचित्र पर बीचो-बीच जुते हुए हैं ।

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