Monday 21 May 2018

जसिंता केरकेट्टा की कविताएं

जसिंता केरकेट्टा की कविताएं

                1

【 उससे मेरा संबंध क्या था ?】

वो आम का पेड़
ठीक यहीं था, सड़क किनारे
जहाँ से मुझे हर दिन
बस पकड़नी होती,
बस जब तक पंहुचती नहीं
वह मुझे तंग करता
पहले मेरी ओर एक आम फेंकता
मैं ख़ुश होकर जैसे ही दांत गड़ाती
"ये तो थोड़े खट्टे हैं" गुस्से में बोलती
वह हंसता
तुम बस में सोती रहती हो न !
यह नींद भगाने के लिए था,
अच्छा अब मीठे आम गिराता  हूं
सच्ची में !
औऱ तब तक बस आ जाती।

उस दिन बस पकड़ने सड़क पर पहुंची
वह गायब था।
सालों से मेरा ठीक यही इंतज़ार करता
वह आम का पेड़
कहाँ जा सकता है भला?
दूसरे दिन अखबार में पढ़ी
उसके मारे जाने की ख़बर।
मैं उस दिन खूब रोयी
जैसे मारा गया हो कोई घर का अपना
मैं उस दिन सोई नहीं रात भर
कैसे काट दिया गया वह यही सोच कर।

दूसरे दिन दौड़ी उधर
सोचा उसकी गंध समेट ले आउंगी
अपने आंगन में रोप दूंगी
उसकी गंध बढ़ेगी
तब मैं उसकी गंध लेकर
घर से निकलूंगी
लौटूंगी जब उसकी गंध को
आंगन में खड़ी पाऊँगी।

मगर मेरे सपने टूट गए
धूल का बवंडर जब हँसने लगा मुझपर
देखा, मेरे आम के पेड़ की गन्ध
धूल के बवंडर से लड़ रही थी
बिल्कुल गुत्थमगुस्था।
मैं भागी थाने की ओर
यह रपट लिखवाने कि
मेरे साथी की हत्या हुई है,
थाना ठहाके लगा कर हंसने लगा
डंडा दिखाता हुआ बोला
पहले तू बता
तेरा उसके साथ संबद्ध क्या था?

मैं आज तक दर दर भटक रही
यही बताने के लिए कि
उसके साथ मेरा संबंध क्या था
मगर वहां कोई नहीं अब
ग़ायब हो चुका है सब
अब सिर्फ़ दूर दूर तक धूल उड़ाती
चौड़ी सपाट सड़कें भर हैं....।

( चौड़ी सड़क के लिए कटे पेड़ों को देखते हुए...)

  
              2

【सपाट सड़क पर स्त्री】

कट चुके हैं पेड़
हो चुकी हैं झाड़ियां साफ
चमकने लगी है चौड़ी सड़क

चलती गाड़ी से उतर जब
सड़क पर पेशाब करते हैं पुरूष
ढूंढती हैं स्त्रियां
कहीं कोई पेड़
कोई झाड़ी की ओट
सपाट सड़क पर...

सपाट होता नगर
भेड़ियों से बचकर भागती स्त्रियों से
उनकी आड़ी तीरछी गालियां छीन लेता है
जंगल का ओट ख़त्म हो जाता है
दीवारों का सहारा मिट जाता है
भागती स्त्रियां दूर तक दिख जाती हैं साफ़
और भेड़िया हंसता रहता है

सपाट होते चेहरे पर
चेहरा और मुखौटा
दोनों एक सा लगता है
आँखे राज खोलती हैं
इसलिए उसे चेहरे से
ग़ायब करने के सौ जतन हैं
नाक के लंबे होते रहने की
कारणों की संख्या बढ़ा दी गई हैं
होंठ सिले हुए हैं किसी अदृश्य धागे से
और सवाल पूछने वालों की लाश
दरवाज़े पर पड़ी हैं कल रात से

सब कुछ सपाट होते इस देश में
असली खाईयां कहां भरी जाती हैं?
दिलों के भीतर के दीवार
कहां गिराए जाते हैं?
कहां जाए टुकड़ों में बंटी धरती
किस सरहद के पार
मांगने अपना पूरा पूरा हिस्सा ?

यहाँ मृगविहार में हिरणों के लिए
जंगल से आदमी खदेड़ा जाता है
और बाघों के बाड़े में ताउम्र
रहने को छोड़ा जाता है
यहाँ काले आदमी का
कालापन पाप बताया जाता है
उद्धार चाहने वालों के हाथों ही
सदियों से सताया जाता है

स्त्रियां इस सपाट सड़क पर
सपाट नगर में, सपाट चेहरे पर
सपाट होते देश के भीतर
ढूंढ रही है वह पेड़
किसी के लिए कभी
कोई दुवा जिससे मांगी थी
ढूंढ रही उस पड़ोसी का घर
जहां अपना पालतू कुत्ता छोड़ आई थी
वो रास्ता जिसके किनारे
ठहर कर कभी सुस्ताया था
वो गली, जिसके आख़िरी छोर पर
उसका तीसरा प्रेमी रहता था
भीड़ में एक वो चेहरा
जिसकी आंखें बहुत बोलती थी
और वह गली जहां खेलता बच्चा
बहुत सवाल पूछा करता था

वह सबकुछ सपाट करने के खिलाफ
लड़ती है कुछ इस तरह
कि जब आदमी कोशिश करता है
एक रंग को हर बार करना जिंदा
पानी फेरती हुई स्त्रियां धरती पर
करती है कई रंगों वाले बच्चों को पैदा।

                    3

स्त्रियों का ईश्वर
.......................
पिता और भाई की हिंसा से
बचने के लिए मैंने बचपन में ही
मां के ईश्वर को कसकर पकड़ लिया
अब कभी किसी बात को लेकर
भाई का उठा हाथ रुक जाता
तो वह सबसे बड़ा चमत्कार होता

धीरे-धीरे हर हिंसा हमारे लिए
ईश्वर की परीक्षा बन गई
और दिन के बदलने की उम्मीद
बचे रहने की ताक़त
मैं ईश्वर के सहारे जीती रही
औऱ मां ईश्वर के भरोसे मार खाती रही

मैं बड़ी होने लगी
औऱ मां बूढ़ी होने लगी
हम दोनों के पास अब भी वही ईश्वर था
मां की मेहनत का हिस्सा
अब भी भाई छीन ले जाता
और शाम होते ही पिता
पीकर उसपर चिल्लाते
वे कभी नहीं बदले
न मां के दिन कभी सुधरे

मैंने ऐसे ईश्वर को विदा किया
औऱ खुद से पूछा
सबके हिस्से का ईश्वर
स्त्रियों के हिस्से में क्यों आ जाता है?
क्यों उसके पास सबसे ज़्यादा ईश्वर है
औऱ उनमें से एक भी काम का नहीं
वह जीवन भर सबको नियमित पूजती है
फिर पूजे जाने और हिंसा सहने के लिए
ताउम्र बुत बनकर क्यों खड़ी रहती है ?

©जसिंता केरकेट्टा

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