Friday, 4 May 2018

किशन महाराज पर व्योमेश शुक्ल का संस्मरण कठिन का अखाड़ेबाज़

आज किशन महाराज को गये दस साल हो गये. नीचे के निबंध में उनके बारे में, उनके और बनारस के रिश्ते के बारे में कुछ बातें हैं. जिन मित्रों को यह लंबा  लगे, वे कहीं से भी पढ़ लें. अगर पूरा पढ़ें तो मेरा सौभाग्य. - व्योमेश शुक्ल
                   कठिन का अखाड़ेबाज़
एक
अगर हर चीज़ का अन्त है तो मृत्यु का भी अन्त है। इस तर्क की ताक़त से मृत्यु के शोक के पार जाया जा सकता है। इसी तर्क की ताक़त से अन्त का भी अन्त मुमकिन है।
किशन महाराज
अन्त के इसी अन्त के साथ विरल तबलानवाज़ और इंसान किशन महाराज की ख़त्म हो चुकी ज़िंदगी को शुरू किया जा सकता है और एक बार फिर उसमें शामिल हुआ जा सकता है, उससे हासिल किया जा सकता है।
दो
कुछ लोग मृत्यु के बाद अनिवार्य हो जाते हैं। दरअसल उनका मृत्यु पूर्व जीवन घटनाओं, व्यस्तताओं, जगहों, लोगों और अवान्तर प्रसंगों से इतना भरा हुआ होता है कि अक्सर उनका ख़ुद इस भीड़भाड़ में गुम रहा आता है या इन्हीं भीड़ भरी शक्लों में ढल जाता है। वहाँ जीवन के दमदमाते हुए कार्यकलापों के सामने बातचीत या विश्लेषण या मूल्यांकन की नौबत नहीं आ पाती। किशन महाराज की ज़िंदगी और कला को इस धारणा के उदाहरण की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है। बहुत दिनों तक उनके व्यक्त्वि की भव्यताओं - मसलन् धवल लहराते लम्बे सफेद बालों, माथे पर के गोल लाल टीके, डिज़ाइनर किस्म की अधुनातन और पारंपरीण पोशाकों, दबंग और डपटते हुए जीवन-व्यवहार; उनकी ही ऊँचाई और वज़न के दूसरे कलाकारों की उपस्थिति, और बिलावजह हीनतर और लाभहानिपरक कामों में गाफ़िल रहने की हमारी चालाकियों और लापरवाहियों ने उनके कलात्मक अवदान के स्वीकार का रास्ता रोके रक्खा। इसीलिए उन पर क़ायदे से बात नहीं हो पाई। जिस हद तक उनका व्यक्तित्व उनका तबला बिक्री और उपभोग के उपलब्ध तंत्र के भीतर समा सकता है उस हद तक वह हमारे बीच बाकी तो हैं ही, जैसे अपने ही किसी यादगार प्रदर्शन की आॅडियो कैसेट की कवर फ़ोटो में - तबला बजाते हुए, सजेधजे, लगभग खिलखिलाते हुए। लेकिन सभ्यता का काम एकाध सुन्दर किस्म की तस्वीरों से नहीं चलता। उसे सम्पूर्ण और व्यापक चित्रमाला चाहिये। उसे सब लोग और ठोस स्मृतियाँ मिलकर बनाते हैं। इसी तरह गँवा दिये गये खजाने और स्वाहा हो चुके इंसानों को हम फिर से अर्जित कर लेते हैं। इसी तरह किशन महाराज जैसे लोग कभी मरते नहीं, हालाँकि उन्हें दुबारा पा लेने के सिलसिले में एक समाज को अपनी ज़िंदगी के दौरान हज़ार बार मरना पड़ता है।
तीन
म्यूज़िकोलाॅजिस्ट्स और बड़े संगीतकार उनके तबले का गुणगान करेंगे, या वे ऐसा नहीं भी कर सकते हैं। बहुत सी बारीक़ और तकनीकी बातें पोथियों में बंद कर दी जाएंगी। हम लेकिन प्रभाव में नहीं बह जाना चाहते बल्कि अपने भविष्य के लिये किशन महाराज के जीवन और उनकी कला को प्रासंगिक कर लेना चाहते हैं। यही उनके काम का असल अभिनंदन होगा। और तब प्रलाप या भक्ति के लिये विवश भी नहीं होना पड़ेगा।
चार
उनका तबला लगातार जनपदीयता के अविराम हो-हल्ले के बीच बजता रहा। उनके घर उनकी बैठक उनके छोटे से बगीचे में रियाज़ के दौरान बजते पुत्रों-पौत्रों-रिश्तेदारों-शिष्यों के तबलों के अलावा कोई एक तबला शहर-शहर करता हुआ भी बजता आया है। जब आप शहर में डूब जाते हैं, ख़़ुद उसी में गुम हो जाते हैं तो शहर भी अपनी राग-रागनियाँ, लयें, अपने समस्त स्पंदन किसी अदृश्य और गोपन पद्धति से आपको सौंप देता है। कलाकार के लिए इससे बड़ा वरदान कुछ नहीं है। किशन महाराज अपने पुरखों के पिछले तीन सौ सालों में अपनी ज़िंदगी जोड़ते हुए इस बुजुर्ग शहर में रहे और शहर ने अपनी विभूतियाँ उनके कानों में फुसफुसा दीं। अपने पड़ोस अपने मुहल्ले के भूगोल में वह पेड़ धूप बारिश और लोगों की तरह शामिल थे। किसी ने उन्हें अपने से भिन्न या ऊँचा नहीं पाया। जला हुआ ट्रांसफार्मर बदलवाने वाले, नलों में पानी न आने पर जलसंस्थान के आला अधिकारी को फ़ोन पर धमकाने वाले, मुहल्ले के आवारों को पुलिस से छुड़वाने वाले, भाई-भाई, सास-बहू, बाप-बेटों के झगड़े सलटाने वाले किशन महराज, हैरत है कि वहीं हैं जिनके बारे में विश्वविख्यात सितार वादक रविशंकर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि वह ‘संसार के श्रेष्ठतम संगतकार’ हैं। उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ की सादगी के दूसरे सिरे पर किशन महाराज की रईसी और शौकीन तबीयत को रखना होगा। लेकिन उनका अभिजात्य भी जनसाधारण से विलग, धन-संपदा की लाठी पर टिकने वाला आभिजात्य नहीं था, बल्कि अर्थशास्त्र के शब्दों में कहा जाय तो एक निम्न मध्यवर्गीय, या, अधिक से अधिक, एक मध्यवर्गीय औदात्य था। या उनके अकूत आत्मिक वैभव का रंग - जो उनके आस-पास की वस्तुओं, जगहों और व्यक्तियों पर अहर्निश बिखरता रहता था। उनकी सक्रियताओं में हमारे सामूहिक चेतन और अवचेतन पर दस्तक दे रहे विकराल बेसुरेपन के प्रतिकार की आवाज़ हमेशा सुनी जा सकती है। शहर के एक नामी-गिरामी अंग्रेज़ी माध्यम प्राइवेट स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रम के मौके पर तबले, वायलिन आदि दूसरे वाद्यों को कायदे से मिलाया नहीं गया था तो मुख्य अतिथि किशन महाराज को विपत्ति की तरह टूट पड़ना पड़ा। वे बोले थे कि आपका सारा तामझाम बेकार है, अगर आपके साज़ बेसुरे बज रहे हैं।
पाँच
जब समग्र अस्तित्व के साथ, पूरी भाव और बुद्धि ऊर्जा के साथ जीवन में शामिल हुआ जाय तो स्मृति कोई बाहरी वस्तु नहीं रह जाती। पचास साल पुरानी और पुरखों से सुनी हुई सौ-दो सौ साल पुरानी किसी बात को वह कल हुई घटना की तरह बताते थे। उन्हें इस राष्ट्र के अतीत के कई स्वर्णिम अध्याय अपनी सादा, निरलंकार और लगभग ग़लत भाषा में अनायास याद थे। उन्हें विस्मृत गायक और गुमशुदा नर्तकियाँ याद थीं। उन्हें बनारस के कोठे और कोठों की संस्कृति याद थी। उन्हें बनारस के नववयस्कों द्वारा इन कोठों पर सीखी जा रही तहज़ीब के किस्से याद थे। उन्हें ‘समाज सुधार’ के जोश में इन कोठों में आज़ाद भारत की सरकारों का किया गया विध्वंस याद था जो एक अर्थ में उपशास्त्रीय संगीत के ‘संस्थान’ का ध्वंस था। यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि ये तथ्य सिर्फ उन्हीं की याद में बाक़ी थे। इस तरह, उनकी मृत्यु के साथ ही इन विरल सांस्कृतिक सूचनाओं की भी अंतिम तौर पर मौत हो गई है। तबले और ज़िन्दगी को लेकर किये गये एक इंटरव्यू के दौरान यह पूछने पर कि तबला बजाने के दौरान उन्हें क्या-क्या याद आता है, उन्होंने कहा था कि अपने पुरखे भैरव सहाय की दाढ़ी उनकी निगाहों में लहराने लगती है। इस अभिराम विजु़अल को पढ़ लेने के बाद कईयों की चेतना में वह झब्बा लहराने लगा होगा।
छह
किशन महाराज एक लोक शिक्षक थे। उन्होंने कुमारबोस, संदीपदास, सुखविन्दर सिंह नामधारी और शुभशंकर सरीखे सामर्थ्यवान तबलावादकों की कई पीढ़ियाँ तैयार कीं। यूरोप और दक्षिण एशिया के अनेक छात्र वर्षों उनके सान्निध्य में रहकर दूसरे वाद्य भी सीखते आए हैं। इसके अलावा मुहल्ले के लड़कों को डपटकर अभ्यास करवाने का काम उन्होंने दशकों तक किया। विख्यात शास्त्रीय गायक राजन-साजन मिश्र बताते हैं कि गली में महाराज जी को आता देखकर वह लोग पलटकर भाग जाते थे और कहीं छिप जाते थे। संदीप दास और सुखविन्दर नामधारी सरीखे पटु शिष्यों के पास गुरूजी की सख़्ती के अनगिन संस्मरण हैं। इस कड़क अध्यापक का असर वृहत्तर तबला-संसार पर इतना ज़्यादा है कि देश दुनिया में फैले लगभग सभी तबलावादक दायें तबले पर चार उंगलियों की फटकार से ‘ता’ बजाने लगे हैं जो उनके पहले तक सिर्फ तर्जनी के ज़ोर से बजता आया था। यानी प्रत्येक तबलावादन में किशन महाराज की ईज़ाद और उनका अंदाज़ भी बज रहा है। मशहूर नर्तकी सितारा देवी का मानना है कि जाकिर हुसैन की शैली में भी किशन महाराज के प्रभाव पहचाने जा सकते हैं। अर्थात् इस रोदन की कोई गुंजाइश नहीं है कि उनके बाद उनकी परंपरा का क्या होगा। उनकी परंपरा अन्यान्य वर्तमानों और भविष्यों में पहले ही ढल गई है।
सात
आधुनिकता के पैमाने किशन महाराज नाम के आदमी और कलाकार को समझने में असहाय साबित होंगे। उनके चारों ओर मिथकों का जो आभामंडल है उसे पार करते हुए ही उनकी कला के मर्म तक पहुँचा जा सकता है। अन्यथा भटकन और अंधेरा ही मिलेगा। एक पिटा हुआ तरीका यह भी हो सकता है कि मूल्यांकन ठप कर दिया जाय, और पुष्प, धूप, नैवेद्य आदि के साथ उनकी आरती पर उतारू हो जाया जाय। यह सब बनारस से शुरू हो भी चुका है जो क्रमशः ज़ोर पकड़ेगा। लोग फ़लाँ चैराहे पर उनकी प्रतिमा लगाने के लिए हाहाकार करेंगे, फिर प्रतिमा की उपेक्षा पर हाहाकार करेंगे। कृतित्व को संगमरमर में कैद कर दिया जायेगा। भक्त उस विराट को नहीं संभाल सकते जिसे ज्ञान कहा जाता है। इसलिए बिल्कुल अभी से श्रद्धा से उलटी दिशा में यात्रा शुरू हो जानी चाहिए। बड़ा कलाकार बहुत से सवाल छोड़ जाता है और जैसा शुरू में कहा गया, उन सवालों के जवाब ढूढ़ने के लिए ज़िद्दी अनुसंधित्सुओं की ज़रूरत है। सवाल ज़ाहिर है कि कई हैं। क्यों उन्हें जींस-टी शर्ट जैसी आधुनातन पोशाकें तक पहनने का शौक था ? क्यों वह नगर के अधिकतर आयोजनों के स्थायी अध्यक्ष या मुख्य अतिथि थे ? उन्होंने जादू और पहलवानी जैसे आॅफ बीट चीज़ें क्यों सीखी थीं। सितारा देवी, गिरिजा देवी, राजन-साजन मिश्र की राह पर चलकर उन्होंने किसी बड़े शहर में आसन क्यों नहीं जमाया ? वह इतने स्वयं संपूर्ण थे तो हल्की-फुल्की तुकबंदियाँ करने और उन्हीं के दम पर स्वयं को कवि कहने-कहलवाने का शौक उन्हें कैसे पड़ा ?
आठ
ऐसे सवालों के जवाब उनके तबले में निहित हैं। उनके तबले को कभी न कभी उत्कृष्टतम लगाव के साथ रेशा-रेशा करना ही होगा। यह बात हमेशा याद रखने की है कि अगर किशन महाराज और उन जैसे कुछ और स्वतंत्रचेता दिमाग़ न होते तबला कमर में बंधा हुआ, इस देश की सड़कों और गलियों में घूम-भटककर बज रहा होता और शास्त्रीय संगीत के मंच पर होने पर भी वह एक हीनतर वाद्य, संगत का एक बाजा होता। वह मुख्य कलाकार के चरणों में लिपटा हुआ बजता रहता। बहुत हद तक किशन महाराज ने उसे एक स्वायत्त व्यक्तित्व, एक तिर्यक भंगिमा सौंपी है। इसके बाद सोलो वादन और संगत के तबले में जो भी परिवर्तन घटित हुए हैं, उनमें किशन जी की भी आभा है। यह जानना बेहद दिलचस्प है कि जिस दौर में अनोखेलाल और सामता प्रसाद जैसे उनके दिग्गज समकालीन उपलब्ध, हिट और समसंख्या वाले आसान तालों को, उनके कायदों-पल्टों-पेशकारों और तिहाइयों को विलक्षण परिष्कार के साथ साधते जा रहे थे, किशन महाराज विषम मात्रा वाले, विस्मृत, दुर्वह और अटपटे तालों, ऊबड़खाबड परनों, कटुता की सीमा तक पहुँची दबंग चक्करदार तिहाइयों और उद्धत लेकिन विश्वसनीय लयकारी की ओर गए। इन चीज़ों में एक कलाकार का दर्प बजता था। यह ‘कठिन’ की अखाड़ेबाजी थी। यह अकेला और अलोकप्रिय होना था। यह मधुरता के विमर्श का तिरस्कार था। यह अद्वितीय रचनाकार जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘गुण्डा’ के नायक नन्हकू सिंह की गुण्डई का एक और संस्करण था। यह मुख्य धारा प्रवाह में अड़ जाने वाला हस्तक्षेप था। कुछ दिनों पहले हुए गंगा महोत्सव में शीर्ष संतूर वादक शिवकुमार शर्मा के साथ जुगलबंदी के दौरान उन्होंने संगत के सारे तरीक़ों को दरकिनार करते हुए एक लगभग आपत्तिजनक लेकिन बेहद दिलचस्प हरकत की। सोलह मात्रा, यानी तीन ताल में निबद्ध एक बंदिश शिवकुमार जी बजा रहे थे। अपनी बारी आने पर किशन जी हर बार भिन्न मात्रा की कोई ताल कभी चैदह मात्राओं का धमार, कभी दस मात्राओं का झपताल, कभी छः मात्राओं का दादरा, कभी आठ मात्राओं का कहरवा बजा देते। इससे सुनने में भयानक अड़चन हो रही थी हालांकि लयविज्ञ प्रसन्न भी हो रहे होंगे। इतना तय था कि सुनने का प्रचलित आनन्द समाप्त हो गया था और एक अदृश्य तनातनी शुरू हो गई थी। अपनी सीमित निगाह से मैंने संतूर-सिरमौर को किंचित् अवसन्न भी पाया था। ऐसी घटना को भूलना अक्षम्य है जिसमें हाशिया गरज-गरज कर कलानुभूति के परिप्रेक्ष्य को संशोधित प्रासंगिक और राजनीतिक बना रहा है।
नौ
शहर सभ्यताओं के आईने हैं। शहर में रहने वाले लोग भी शहर होते हैं। शहर की ख़ासियतें उसकी तकलीफें उसका पिछड़ापन उसके नागरिक में छन जाती है। किशन महाराज प्रमाण हैं। वे दूसरे लोगों से, दूसरे कलाकारों से भिन्न नज़र आते हैं। दबंग और गपबाज़ और परवाह न करने वाले। लेकिन क्या इसलिए उन्हें खारिज कर देना चाहिए। उन्हें स्कूली शिक्षा नहीं मिली थी और भाषाओं की बुनियादी तालीम घर पर ही दिला दी गई थी। उनके व्यक्तित्व में आधुनिकताजन्य आकर्षण कम से कम थे। इसलिए भी उनसे प्रभावित लोगों की संख्या दूसरे लोगों की अपेक्षा कहीं कम है। पत्रकारों और दूसरे प्रश्नकर्ताओं के लिए वह कत्तई कोमल नहीं थे। एक इंटरव्यू के पहले मुझे डपटते हुए उन्होंने कहा था कि पहले के साक्षात्कारों में पूछा गया कोई सवाल मत पूछना, नहीं तो यह बातचीत वहीं ख़त्म हो जायेगी। ऐसे व्यक्ति को बहुत दूर तक अनुकूलित नहीं किया जा सकता। जिस ‘विनम्रता’ या ‘सौजन्य’ की उम्मीद प्रतिष्ठानों को कलाकारों से रहती है, वह उनमें नदारद थी। इसी वजह से उनपर प्रहार किए गए। तब के मानव संसाधन मंत्री मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता में हुई एक स्थानीय गोष्ठी में उन्होंने केवल इतना कहा था कि सरकारों को राजकीय सम्मानों के लिए कलाकारों का चयन करते समय अनुभव और वरिष्ठता का आदर करना चाहिए। सनसनीखेज पत्रकारिता की मर्मशून्य ख़बरों में इस तथ्य को इस तरह पेश किया गया मानो किशन महाराज अपने लिए भारतरत्न की माँग कर रहे हों, और जैसा कि ऐसे प्रसंगों में होता है, कुछ सच्चरित्र लोग उनकी इस ‘माँग’ की भर्त्सना करने लगे। कुछ ही दिनों में प्रचार माध्यमों का यह झूठ विकराल हो गया और पढ़ेलिखे लोग चपेट में आ गए। निर्दोष कलाकार को बेवजह अवमूल्यित होना पड़ा।
दस
दरअसल किशन महाराज जैसे लोगों को पहचानने के लिए सभ्यता को समझने की एक महत्वाकांक्षी बौद्धिक परियोजना की दरकार है। इतनी लीला करने वाले व्यक्ति को ऊपर से और आसानी से नहीं जाना जा सकता। उन्होंने बहुत से भ्रम खड़े कर दिये थे। उनके कपड़े-लत्ते अगर फैशन के मुताबिक थे तो उन कपड़ों के भीतर का शरीर एक पहलवान का था और दिमाग़ एक ख़ालिस स्थानीय का। वह दूर तक सोचने वाले आदमी नहीं थे और भीतर के किसी तत्काल की ताक़त पर चलते थे। वह स्वयं को कभी गम्भीरता से नहीं लेते थे और ऐसा करने वालों को नकली मानते थे।
व्योमेश शुक्ल
वह एक थकी हुई तहज़ीब के प्रतिनिधि चरित्र थे। किशन महाराज की मृत्यु यह मान लेने का सही अवसर है कि जातीयता के वास्तविक स्त्रोतों की ईमानदार पहचान और उस पहचान की सैद्धान्तिकी के निर्माण के बग़ैर उनके जैसा आदमी और कलाकार अन्ततः अपरिचित रह जाएगा।

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