Wednesday, 23 May 2018

बनारस के बुनकरों पर राहुल वज्रधर की कविता खेत में संस्कृति

खेत में संस्कृति
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साहब!खेती करते देखा है
बुनकरों को
खेतों में नहीं
साड़ी में

बनाता है धागा
बनाता है अपने दिमाग की माप
जिसमें धागे निकलते हैं मष्तिष्क की
जो गाँस बना जाती है
हमारे सभ्यता और संस्कृति में

वह बनाता है कपड़ों पर रंग
और रख देता है मोहनजोदड़ों की ईंट
हुसैन की कलाकारी सा भरता है रंग
जैसे आँखों से उतरता है खून
जो वोदका के रंग सा दिखता है खूबसूरत

किमख्वाब,अतलस और
बनारसी पान से बनाता है छाप
और भर देता है देश का आँचल
साहब!क्या ऐसी खेती देखी है आपने?

वैशाली के पुरातात्विक चिन्हों
सा खिंचता है लकीर

दफ़्ती पर उतारता है
मनुष्य के कान और पेड़ के पत्ते
जैसे आम और जामुन के बीच
खड़ा होता है नंगा महुआ

बनाता है रंग,बनाता है साड़ी पर नक़्क़ाशी
जैसे दुल्हन के पाँव पर रची होती है मेहंदी
वहीँ से बनती है शर्म की गोलियाँ
और वहीँ से बनते है ज़िस्म पर छांह
क्या साहब! ऐसी खेती देखी है आपने?

राहुल वज्रधर

2 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 28 मार्च 2020 को लिंक की जाएगी ....
    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद

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