Saturday, 19 May 2018

श्रीप्रकाश शुक्ल की कविताएं

                               1

देश के प्रधानमंत्री के नाम देश के एक नागरिक का खत
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प्रधानमंत्री जी, आपके काशी आगमन का हम तहेदिल से शुक्रिया अदा करते हैं
हम इस बात का भी शुक्रिया अदा करते हैं कि यहाँ के घाटों की सफाई हो गयी है
और गंगा के दूधिया जल में कुछ चेहरे अब उभरने लगे हैं

हम इस बात के भी शुक्रगुजार हैं कि यहाँ की ऊबड़खाबड़ सड़कें थोड़ी स्वस्थ व सुंदर हो गयी हैं
और कुछ समय के लिए ही सही
यहाँ के रिक्शे व ताँगे वाले अब यहाँ की गलियों में घुसते समय हिनहिनायेंगे नहीं

हम आपके इस आगमन को शहर की चिकनाई से जोड़ कर देखते हैं
और इस रूप में भी देखते हैं कि अपनी पुरातन व्यवस्था में रगड़ खाता यह शहर
यदि कभी आधुनिक दिखेगा तो वह आपकी यात्रा से ही सम्भव है
जिसमें थोड़े समय के लिए यह भी अपने पंजों पर खड़ा हो आपको निहारता है
थोड़ी देर के लिए यह आपकी अगवानी में ठहर सा जाता है
और थोड़ी देर ही सही
इसकी धमनियों में आधुनिकता से लबरेज एक ठकठक की आवाज लगातार बजती है
जो कान में प्रवेश करने के पहले ही दिमाग में उतर सी जाती है
लेकिन प्रधानमंत्री जी, आपके आने व जाने के बीच कुछ ऐसे सवाल हैं
जो आपके गुजरने के बाद की छोड़ी हुई हवाओं में बरवक्त तैरते रहते हैं
कि आखिरकार यह सब देश के प्रधानमंत्री के खाते में दर्ज होता है|
या फिर देश के नागरिकों के खाते का भी इससे कुछ सम्बन्ध होता है

क्या देश के प्रधानमंत्री के खाते में ऐसी ही चिकनी चिकनी बातें दर्ज होती हैं
जहाँ खुरदुरेपन के लिए कोई जगह नहीं होती
या फिर देश के नागरिक के भाग में उतना ही बदा होता है
जितना कि देश के प्रधानमंत्री को सरकने के लिए जरूरी होता है!

आपकी आगवानी में जो कुछ होता है उससे हमें ऐतराज नहीं
हमें इससे भी ऐतराज नहीं कि आपका शहर आगमन शहर की नींद में एक सपने की तरह होता है

लेकिन प्रधानमंत्री जी, उस युवती ने आपका क्या बिगाड़ा था जो लंका के भीड़भरे चौराहे
पर अस्पताल जाने के लिए अंतिम साँसें ले रही थी
और आपके सुरक्षा दस्ते में इतनी सुरक्षित थी कि करवट भी नहीं बदल पा रही थी
कराहना तो दंडनीय अपराध था ही
क्योंकि इससे आपकी नींद को खतरा था
और आपकी नींद की हिफाजत करना उसके लिए एक बड़े राष्ट्रीय दायित्व को निभाने जैसा था

इधर हम थे कि जो कभी शब्दों से लोहा गलाने की क्षमता रखते थे
जो कभी शब्दों से पर्वत ढहा सकते थे
जो कभी शब्दों से आपकी नींद हवा कर सकते थे
उस आदमी को तनिक भी नहीं पिघला पा रहे थे
जो आपकी ओर से हमारी सुरक्षा में खड़ा था

कभी आपने सोचा कि आपकी इस यात्रा में उसकी जो साँसें अटक गयी थीं
उन साँसों के चलते रहने में आपके देश की क्या भूमिका है
या कि जिन शब्दों से हमारा भरोसा छिन गया है
उनसे खुद आप कितने सुरक्षित रह गये हैं?

प्रधानमंत्री जी, आखिरकार उस गौरैया ने आपका क्या बिगाड़ा था जो सड़क पर फुदक रही थी
उस कुत्ते ने आपका क्या बिगाड़ा था जो केवल बाँस की बल्लियों को लाँघने के अपराध में इस दुनिया से विदा हो गया
और तो और उस साँड़ ने आपका क्या बिगाड़ा था जो अलमस्त ढंग से सड़क के एक किनारे बैठा देश का जायजा ले रहा था

क्या आपने कभी सोचा कि जिस साँड़ को आपकी सरकार ने देशनिकाला दे दिया
उसके घर को बनाने में आपकी सरकार ने अभी तक क्या किया है

वह आज भी सड़क के बीचोंबीच वैसे ही टहलता है
जैसे कि अपने जन्म के समय सड़क के ठीक बीच में पैदा हुआ था

प्रधानमंत्री जी, जब आप लालकिले से देश के नौनिहालों के नाम सम्बोधन करते हैं
तब मेरे मन में कोई सवाल नहीं उठता
क्योंकि देश के झंडे के नीचे हमें कुछ न बोलने का संस्कार जनमघुट्टी की तरह दे दिया जाता है
कि आप जो कुछ भी बोलेंगे
देश की पवित्र जनता के लिए पवित्र झंडे के माध्यम से पवित्र मन से ही बोलेंगे

आप वहाँ बैठे रहते हैं तब भी मेरे मन में कोई सवाल नहीं उठता
क्योंकि जिस शहर में आप रहते हैं और जिसे हमारी धड़कनों के रूप में बताया जाता है
वह शुरू से ही सवालों के बाहर है -
लगभग अपने देवता की तरह
जिन पर सवाल करना अपनी ही बेवफाई का इजहार करना है

किन्तु जब आप बाहर रहते हैं
मसलन यही कि जब आप हमारे इस पवित्र शहर में रहते हैं
और शहर की प्राचीनता व पवित्रता व जातीयता व मानवता
जाने किस किस प्रत्ययी ‘ता’ पर बोल रहे होते हैं
तब मेरे मन में आपको लेकर बार बार सवाल उठता है कि आप कैसे बोल रहे होंगे उस जगह पर
जहाँ पर आपको हिलने भर की आजादी भी नहीं मिलती
जहाँ आप आराम से नाक भी नहीं खुजला सकते
और जहाँ पाँव भर फैलाने की आजादी भी नहीं होती

मुस्कुराना तो यूँ भी राष्ट्रीय अपराध होता है!
क्या हमारे देवता ऐसे ही होते हैं प्रधानमंत्री जी
या फिर जिन्हें देवता बनाना होता है
उन्हें ऐसा कर दिया जाता है
कि वे ठीक से हिलडुल भी न सकें
ठीक से हँस भी न सकें
ठीक से बोलने को कौने कहे
ठीक से सुन भी न सकें!

प्रधानमंत्री जी, जितना आप कैमरे के इस देखने में रमे रहते हैं
कितना अच्छा होता कि आप हमारे देखने को लेकर भी थोड़ा नम रहते

थोड़ा यह भी समझते कि आपके इस शहर में कोई है जो जनता के नाम पर समझ रहा है

तब कितना अच्छा होता कि इस देश में सिरफिरों की संख्या थोड़ी कम होती
देश की जनता थोड़ा गम खाती
और जिसे कहने के लिए हमें तरह तरह के शिल्प को ईजाद करना पड़ता है
उसे आपसे सीधे कह सकते

न सही आपके शहर का होकर
अपने शहर का होकर तो बोल ही सकते।

प्रधानमंत्री जी, क्या कभी आपने सोचा है कि आपके शहर में हमारा तनिक भी प्रवेश
आपके शहर में एक ऐसे खौफ को जन्म देता है
जिसमें बहुतों की जान केवल इसलिए चली जाती है
कि कभी वे ऐसा न सोचें
जबकि हमारे शहर में आपका प्रवेश इस तरह होता है जैसे यह शहर आपका बनिहार हो|
जहाँ जब तब आप दावा ठोंकने के लिए चले आया करते हैं

या कि यह भी कि जब भी आपको खखारने की इच्छा होती है
जब भी आपको निबटने की इच्छा होती है
जब भी आपको कुछ टपकाने की इच्छा होती है
इस शहर में आ धमकते हैं
जहाँ शहर की हवाओं तक को आपको गुदगुदाने की मनाही है
जहाँ शहर में चमकता सूरज आपको छू भी नहीं सकता
जहाँ की धरती आपके पाँवों को सहला भी नहीं सकती!

गंगा की तो बात ही अलग है
वह तो बेचारी यूँ भी आपके आगमन से लुड़िया जाती है।

प्रधानमंत्री जी, इतनी धरती, इतना आकाश, इतना सूरज और इतनी हवाओं को लेकर आप स्वयं चलते हैं
कि हमारे लिए कठिन हो जाता है अपनी हवाओं को समझना
कठिन हो जाता है अपने देश की गंध को महसूसना
और जब तक हमें कुछ सूझता है
आप गुजर चुके होते हैं
हमारी हवाओं से

प्रधानमंत्री जी, कहने को तो बहुत कुछ है
और यह बहुत कुछ आपके लिए कुछ भी नहीं है
फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि आपका सब कुछ
जिस काफिले के नाम पर घटित होता है
उसमें हमारे लिए सिवाय इसके कोई जगह नहीं बचती कि
हम अपना अपना काफिया मिला कर अपने को ठीक करें
और एक काफिर की तरह उपद्रवी घोषित किये जाने के पहले ही
अपने को देश की सुरक्षा के नाम पर समर्पित कर दें

और बावजूद इसके आपका जयघोष करें
फिर भी जयहिन्द की तरह
जय जय हिन्द की तरह!

प्रधानमंत्री जी, मैं जानता हूँ कि मेरा यह सवाल भी
जैसा कि अब तक होता आया है
एक सिरफिरे के भड़ास निकालने वाले खाते में दर्ज होगा
जिस खाते में पहले से ही भारी आँकड़े दर्ज हैं
लेकिन सवाल फिर भी सवाल है कि इतनी सड़ांध को पचाते हुए
इतनी चिकनाई का हम क्या करें
जिसमें मक्खियों तक की सुरक्षा में सरकार का सुरक्षा दस्ता मुस्तैद रहता है।

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                          2

पहरे पर पिता
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पिता रात भर खांसते हैं

जगते हैं तो समय पूछते हैं

सोते हैं तो खर्राटे भरते हैं

कभी कभार

नहीं नहीं कभी कभी

जोर जोर से खांसते हैं

जैसे की बचपन में नई नवेली बहुओं के होने पर

ओसारे से ही खांसना शुरू करते थे

पिता बहुत आश्वस्त हैं

अभी भी खांस रहे हैं

लेकिन जब सुबह उठते हैं तो पूछते हैं

आज रात खांसी तो नहीं आई !

पिता हमारी नींद को लेकर

अपने खांसने में भी सजग हैं

लेकिन इतने नहीं की जब वह आ ही जाय

तो नए ज़माने की तरह "एक्स्कुज मी" कहना न भूलें !

अब जब कभी खांसते हैं तो मुह तोपकर खांसते हैं

और जब उनसे दवा लेने की बात कहता हूँ

तब फिर खांसते हैं

और धीरे से मुस्कुरा देते हैं

खांसना जैसे उनका पहरे पर होना है

और जिन्दा रहने का निशान छोड़ना है !

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                         3

मित्रता

यह मित्रताओं के टूटने का समय है।

जब तिरस्कार, घृणा, दरिंदगी व गलाजत
एकदम से चुक चुकेंगी
तब कमरे में बिखरे अखबारों के बीच
गिरे किसी लिफाफे के वजूद की तरह
टूटेगी हमारी मित्रता!

जब संबंधों की बहुत गरमी के बीच
चुपचाप प्रवेश करेगी कोई ठंडक
तब शिशिर में पीले होते पत्तों की तरह
आखिरी क्षण के अटके आँसुओं में
टूटेगी हमारी मित्रता

हमारे चुपचाप चले जाने के बीच
जब होगी किसी के बुलाने की आहट
और इस आहट में होगी
पहुँचने की जल्दबाजी
तब टूटेगी हमारी मित्रता
हमारी थकान हमारी ऊबन हमारी घुटन के तमाम कुढ़ते क्षणों में
हमारी निरीहता के ठीक बीचोबीच|
जब उपस्थित होंगे कुछ सपने
(झिलमिलाते ही सही)

तब हमारी मित्रता के टूटने के दिन होंगे

ऐसी स्थिति में
उड़ान में छूट गए पक्षियों के कुछ पंखो की तरह
कब तक बचा पाएँगे हम
हमारी मित्रता।

-श्रीप्रकाश शुक्ल

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