Wednesday, 30 May 2018

महादेवी वर्मा की प्रसिद्ध कविता जो तुम आ जाते एक बार

जो तुम आ जाते एक बार

कितनी करूणा कितने संदेश
पथ में बिछ जाते बन पराग
गाता प्राणों का तार तार
अनुराग भरा उन्माद राग

आँसू लेते वे पथ पखार
जो तुम आ जाते एक बार

हँस उठते पल में आर्द्र नयन
धुल जाता होठों से विषाद
छा जाता जीवन में बसंत
लुट जाता चिर संचित विराग

आँखें देतीं सर्वस्व वार
जो तुम आ जाते एक बार

महादेवी वर्मा

Sunday, 27 May 2018

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कविता तुम्हारे साथ रहकर

तुम्हारे साथ रहकर
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तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे ऐसा महसूस हुआ है
कि दिशाएँ पास आ गयी हैं,
हर रास्ता छोटा हो गया है,
दुनिया सिमटकर
एक आँगन-सी बन गयी है
जो खचाखच भरा है,
कहीं भी एकान्त नहीं
न बाहर, न भीतर।

हर चीज़ का आकार घट गया है,
पेड़ इतने छोटे हो गये हैं
कि मैं उनके शीश पर हाथ रख
आशीष दे सकता हूँ,
आकाश छाती से टकराता है,
मैं जब चाहूँ बादलों में मुँह छिपा सकता हूँ।

तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे महसूस हुआ है
कि हर बात का एक मतलब होता है,
यहाँ तक कि घास के हिलने का भी,
हवा का खिड़की से आने का,
और धूप का दीवार पर
चढ़कर चले जाने का।

तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे लगा है
कि हम असमर्थताओं से नहीं
सम्भावनाओं से घिरे हैं,
हर दिवार में द्वार बन सकता है
और हर द्वार से पूरा का पूरा
पहाड़ गुज़र सकता है।

शक्ति अगर सीमित है
तो हर चीज़ अशक्त भी है,
भुजाएँ अगर छोटी हैं,
तो सागर भी सिमटा हुआ है,
सामर्थ्य केवल इच्छा का दूसरा नाम है,
जीवन और मृत्यु के बीच जो भूमि है
वह नियति की नहीं मेरी है।

हेमा गोपीनाथ की मशहूर कविता काली

ये अम्मा की ही गलती होगी
कि मैं जनी गई
कावेरी के तट पर
तभी तो लाख जतन से भी नही धुला
मेरी देह से जलोढ़
मिटटी का काला रंग
काली.............................
‘कोयले का छोटा टुकड़ा’
कहा मुझे माँ के भाई ने
और जताया मामा ने ऐसा
मैं नही दिखी उनको
सौर गृह के अँधेरे में
तमिल भाषा में यह बहुत
मीठा प्यारा संबोधन है
काली..................................
‘ये अंगीठी में थोडा ज्यादा पक गई’
चुहल किया था पिताजी ने
अम्मा ने अपराधबोध के साथ
जब दूसरी कन्या धर थी गोद में
‘धान उगाने वाला किसान ही ब्याहेगा
इसको तो ’
काली .....................................
मैं छह बरस की हूँ
जब मुझे ये समझना पड़ा है
गणित में अपने तिहत्तर प्रतिशत को
मेरे 99 प्रतिशत से मिलाते हुए
मुंह बिसुराते हुए , उसने कहा
‘कम से कम मैं तुमसे गोरी तो हूँ ‘
काली.............
तीसरी कक्षा में पहली बार
जब मैने दिया नही पकड़ने
नन्हा हाथ उस नन्हे लड़के को  
राहत अली ने मुझ पर खीज कर कहा था
‘काली’
और बाद में तो मैं अभ्यस्त हो गयी
काली..........................................
किशोरावस्था में
नृत्य प्रशिक्षण पूरा होने पर
भरत नाट्यम प्रस्तुति के लिए
पोता मैने मुट्टी भर सफेद मेकप चेहरे पर 
और काली गर्दन के साथ
गड़ सी गई मैं शर्म से
ढकी छुपी थोड़ी प्रसन्नता के साथ
भले ही जोकर सी दिखी
पर दो घंटे के लिए
गोरी तो हुई
काली ........................................................
हाइड्रोजन पेरोक्साइड ब्लीच के साथ
मैने खुद को थोड़ा सा जलाया
गोरी चमड़ी के लिए
कॉन्ग्रेरचुलेश्न्स
काली ..................................................
हो सकने वाले दुल्हे की गर्वीली मम्मी को
चाहिए थी गोरी चिट्टी दुल्हन
अपने लाडले बेटे की खातिर
वो खुद दूध सा गोरा जो था आखिर
अम्मा ने तीक्ष्ण संयत शब्दों में
उन्हें चलता किया
‘मेरी बेटी का रंग उबला हुआ है
और उसे ही दूध में मिलाने पर 
है मुमकिन 
कॉफ़ी के भाप की तेज खुशबू ’
काली ...................................................
मुझे मजाक का शुबहा हुआ था
उस भले लड़के की बातों में
जिसने कहा था मुझसे
‘तुम्हारी रंग खुबसूरत ताम्बई है’
गौर किया था
बोरिस बेकर ने बस एक बार
कि उसकी प्रेमिका काली है 
जब उसने देखा
बिस्तर पर सफेद चादर के साथ परस्पर
उसकी गहरे रंग की
सुंदर मखमली त्वचा
काली ...........................................
अन्तरंग लम्हों के दरम्यां
पति के सुडौल गोरे बाजुओं पर
हाथ फिराते हुए 
मुझे हैरानी थी
‘किस तरह वो मानता है मुझे हसीन ’
काली ...............................
लक्मे कॉम्पेक्ट के बस तीन शेड्स बनाती है
व्हाइट , ऑफ़ वाइट और पीच
मैं ख़ुशी से बावली हुई थी
छब्बीस बरस की उमर में
हीरालाल चोर बाज़ार से
मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री होने से पहले
मैने ख़रीदा था
अपना पहला जादुई  कॉम्पेक्ट
NC 45
उन्होंने मुझे पहचाना
जान लिया, मैं भी कोई हूँ  
मेरा अस्तित्व था
मेरे रंग का भी एक नम्बर है
आज भी रखी हुई है संभाल कर
कि पहले कॉम्पेक्ट की वो गोल डिब्बी
ठीक 18 साल बाद
सेल्सगर्ल ने मुझे सलाह दी
‘मैम परचेज NC44
इट विल मेक यु फेयर ’
काली .........................................
पार्क में मेरी साफ़ रंगत की बेटी को
झूला झुलाते हुए
किसी ने पूछा
उसकी मम्मी के बारे में
झटके से , फुसफुसाते हुए, गुस्से में मैने कहा
मैं ही माँ हूँ
‘सॉरी बहन जी ... वो तो मैं...
दरअसल नौकरानियां ही इत्ती सांवली होती हैं’
खिसियाई हंसी हंसते हुए
क्षमा याचना की थी उस भद्र औरत ने
काली................
धूप में मत जाना
स्विमिंग मत सीखो
कुम्हला जाओगी
विटामिन डी का स्तर सिर्फ 4.75
इसके साथ चिंता और तनाव है
गोरी चमड़ी की कीमत
काली ................................
मेलानिन पिगमेंट नही
बिमारी है
ओह इसका भी इलाज़ है
काली............................
सिर्फ सोना पहनो तुम
चांदी में तो और काली हो जाती हो
हीरे को तो रहने ही दो
पोर्सिलेन रंग वाले चिट्टे पंजाबियों के लिए
काली ..........................
सफ़ेद मत पहनो , काला भी नही
अब नीला क्यूँ , छोड़ दो ये गुलाबी कुर्ती
मत पहनो गहरे रंग और हल्के भी
भगवान के लिए
चटकीले रंगों से दुरी बनाओ
हल्के रंग क्यूँ पहन लेती हो
काली....................................................
वो जिसने
नही पहना है कोई वस्त्र
जो सजी है खून और नरमुंडों से
जो अब पीड़ा से परे है
जिसने पैने कर रखे हैं
अपने दांत और पंजे
क्या खूब भयावह
अपने काले ही रंग में
वो पूजी जाती है
आदर और प्रेम का पात्र है
काली।

-हेमा गोपीनाथ

हिन्दी अनुवाद नेहा अमरेव

सोचो कि तुम कोई और होती अरमान आनंद की प्रेम कविता

चाहे कितना भी लिखा जाए। प्रेम हमेशा एक अनछुआ विषय ही रहता है। पढ़िए मेरी नई कविता ..नई प्रेम कविता - अरमान आनंद
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सोचो कि तुम कोई और होती
मैं कोई और होता
तो क्या होता

हम बाग के किसी कोने में औरों की तरह प्यार कर रहे होते
दुनियां हमें तबाह करने के तमाम रास्ते ढूंढ रही होती

सर्दियों की धुंध
जून रात की गर्म छतें
खाली उम्रदराज कोठरियां
बाग के कंटीले झुरमुट
सुनसान फूलों के खेत
हमारे ठिकाने होते

लम्बी उम्र के लिए प्यार को एक अदद पर्दे की तलाश होती है

तुम कोई और भी होती
तब भी यूँ ही मुझसे मिलती
यूँ ही हंसती
खिलखिलाती
और शरमा जाती

मैं कोई और भी होता
तब भी
तुम्हारी शर्म को बाहों में यूँ ही समेट लेता

तुम हम कोई भी हों
प्यार ही हमारा काम है
कामगार सिर्फ कामगार होते हैं
सूरतें बदलने से उनके काम और तकदीर में कोई फर्क नहीं पड़ता।

मोहन कुमार नागर की कविता कवि का कबूलनामा

कवि का कबूलनामा

हम हारे
फिर हमने हार पर कविता लिखी !

हमने अन्याय देखा / सुना / सहा
फिर सहने पर कविता लिखी !

हमें बोलना था
पर चुप रहे
फिर इस चुप्पी पर कविता लिखी !

हमें बोलना / लड़ना /
लड़ते हुए लोगों के साथ चलना था
पर जड़वत रहे
और अपनी जड़ता पर कविता लिखी !

हमने हर बार प्रार्थना की
कि और न लिखना पड़े

पर कुछ करने / कर पाने के मामले में
हम बहुत बहुत कमजोर निकले
लिहाजा फिर फिर हारे
फिर फिर
हार पर कविता लिखी।

हम बासी सभ्यता के अग्रदूत ही रहे
भविष्य हमें खारिज करे ।

बहादुर पटेल की कविता बबूल का पेड़

बबूल का पेड़
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उसे कोई नहीं लगाता
अपने आप अपनी तरह उगता है
जैसे वह पश्चाताप की विरुद्ध खड़ा होता है धीरे-धीरे
अपनी बदसूरती में भी लहराता हुआ
आत्ममुग्ध नहीं होता

खटकता है कई लोगों की आँखों में
रूप अरूप के पार
अपनी रक्षा में रचता है काँटे
कई के तलवों का स्वाद चखता

मेरा बहुत वास्ता रहा इससे
बचपन से लगाकर आज तक भी
दादा इसी से बागड़ बनाते थे खेतों के आसपास
मेरे पाँव में इसके काँटों छाप अभी तक है
इसके बेगन्ध फूल मुझे लुभाते हैं आज भी
यह धँसा हुआ है आज भी मेरी स्मृति में

मुझे याद आती है वो चुलबुली लड़की
जो इसके पापड़ों से बना लेती अपने लिए पायल
आज भी उसकी खनक के पीछे
दौड़ लगाता काँटों के पार निकल जाता हूँ
लेकिन वह वहाँ अब नहीं मिलती ।

- बहादुर पटेल

उमा शंकर सिंह परमार की कविता

एक आदमी
मुँह अन्धेरे चारपाई से उठता है
खाँसता है खखारता है
शहर के भीड भरे चौराहे पर खुद को खडा करता है
वह एक आदमी
दुनिया की तमाम योजनाओं से खदेडा हुआ
दौ तीन सौ रुपये मे आठ घन्टे के लिए बिक जाता है

किसी गाँव के शहर में तब्दील होने की
पहली शर्त
यही एक आदमी है
कुछ वर्ष पहले मेरे गाँव में
शहर नही था
अब सुबह के साथ ही शहर आबाद हो जाता है
और सूरज ढलने के साथ
शहर भी थका हारा चारपाई मे लेट जाता है

वह रात भर सोचता है
सोता है
खुद के अतीत को कोसता है
वह याद करता है
वह खेतों से भगाया गया
वह घर से भगाया गया
परधान ने मनरेगा से
कोटेदार ने रासन से भगा दिया
भगाए हुए ऐसे तमाम आदमी
खूबसूरत  शहर बन जाते हैं

भगाया हुआ आदमी
शहर के चौराहों को जिन्दा रखता है
फुटपाथ आबाद रखता है
सोते जगते जब कभी
विकास नारों में तब्दील होकर
शहर की तरफ भागता है
पुलिस प्रशासन व्यवस्था
सबसे पहले इस जिन्दा शहर को
पानी की तरह उलीचते हैं

भगाया हुआ आदमी
विकास के इस दौर में
कानूनन कचरा है
विकास और आजादी के बीच
औंधे पडे किसानों का
कचरे में तब्दील होना
इस सदी की
सबसे जरूरी , और संवैधानिक
घटना है

Friday, 25 May 2018

अरुण कुमार श्रीवास्तव की कविता तूतीकोरिन

तूतीकोरिन

उनके पास पुलिस है,फौज है,अफसर है,मीडिया है
और उनके हुंकारे भी ।
उनके पास अपनी सिखाई जनता है
विधायिका है,न्यायपालिका है,सम्विधान के पन्ने हैं
और नामी गिरामी वकील भी।
उनके पास गोला है,बारूद है,असलहे हैं.   
 और हथियारों के सौदागर भी।
उनके पास गाड़ी है,घोड़ा है,टमटम है
जहाज है,रफ्तार है,और पायलट भी
उनके पास सांसद है,विधायक हैं,नेता हैं,अभिनेता हैं
सेवक हैं,चाकर है और कुशल वक्ता भी।
वे अदृश्य नहीं,दृश्य हैं,वे ही कानून हैं ,वे ही सरकार है
वे शांतिप्रिय हैं,राष्ट्रवादी हैं,देशभक्त हैं,उनका नाम है दुनिया जहान में।
वे इण्डिया के नुमाइन्दे हैं।
वे इण्डिया के चमकीले चेहरे हैं,भविष्य हैं
कीचड़ सने भारत मे खिले हुए कमल हैं,
विजय चिन्ह दिखाते हाथ का पंजा हैं।
वे  ही श्री श्री हैं,योग गुरु हैं,संत हैं,महन्त हैं,मुल्ला है,पादरी है, फकीर हैं,समाज सेवक हैं,
आध्यात्मिक है,चमत्कारिक कलाकार हैं।
वे सृष्टा हैं,दृष्टा हैं,कर्मनिष्ठ हैं,वस्तुनिष्ठ हैं
वे अमीबा है,स्कार्पियो है देश के संसाधन के
पर अच्छे दिन के वाहक हैं।
वे हिंदुस्तान के मुख पर
तड़ाक से जड़ा हुआ तमाचा हैं और
भूखे नंगे लोगो के लिए योग का पाठ हैं।
वे अलीराजपुर हैं,सिंदूर हैं,बस्तर हैं,मानेसर हैं
गुरुग्राम हैं,आनन्द हैं,सूरत हैं,कोटा हैं
और वे ही तूतीकोरिन हैं।
वे भारत के कॉरपोरेट घराने हैं,देश के अगुवा सरदार हैं।

अरुण कुमार श्रीवास्तव

सीमा संगसार की कविता बनारस

बनारस

देवालयों में
जलते चिता के
उठते धुआंरे से
सुगंधित होती है
मणिकर्णिका की गलियां ....

काल नृत्य करते हो जहाँ
पुल ढहा दिए जाते हैं
अनैतिक कर्मों से लिप्त
ध्वस्त मानसिकताओं की तरह...

राजा धुनी रमाए
बैठा है
जीत के जश्न म़े
झूम रहा है
गांजा और चिलम की
आङ़ म़े !!

नदियों का रंग
लाल हो गया है
आजकल
गो कि मुर्दाओं का वास है
देवताओं के इस शहर म़े ....

सीमा संगसार

नरेश सक्सेना की दो कविताएँ कोणार्क सूर्य मंदिर और तूफान

कोणार्क सूर्य मंदिर

सूर्य मंदिर के भीतर इतना अंधकार
यह मंदिर सूर्योदय का है कि सूर्यास्त का?
लेकिन यहां बताने वाला कोई नहीं
सात पहियों के बावजूद यह रथ चलता नहीं है
पत्थर का रथ और पत्थर के पहिये
घोड़े भी होते तो क्या पत्थर के ही होते,
लेकिन पत्थर के होते तो कहीं और
चले कैसे जाते
रोशनी के रथों में आज भी
घोड़े नहीं, आदमी ही जोते जाते हैं
बिजली के खंभों से नहीं आती बिजली,
बिजलीघरों से भी नहीं आती वह
बहुत दूर कोयला खदानों के नीम अंधेरे में
कोयला खनते मजदूरों के सीने से निकलती है
जो अक्सर खून की उल्टियां करते,
हांफते हुए
या धसकी हुई सुरंगों में जिंदा दफ्न होकर
मरते हैं
कोणार्क में इन दिनों सैकड़ों कारीगर लगे हैं
मंदिर की मरम्मत में
लेकिन सब जानते हैं
यह रथ चलने वाला नहीं है
चलने के लिए इसे शायद बनाया ही नहीं था
आर्यभट के सिद्धांत को सिद्ध करने
जिसने कहा था कि सूर्य नहीं
पृथ्वी भ्रमण करती है
(सूर्य का यह रथ चलता
तो शायद कभी लखनऊ भी आ जाता)
सोचता हूं, सूर्य का
आकाश जैसा विशाल और भव्य मंदिर होते हुए
इसे बनाने का विचार किसी को आया ही क्यों
लेकिन यहां बताने वाला कोई नहीं।
* * *

|| तूफ़ान ||

उसे हुदहुद कहो या बुलबुल
उसका सिर्फ नाम बदलता है
काम नहीं बदलता
वह बिला वजह पेड़ों को उखाड़ देता है
नावों को डुबो देता है
और झोपड़ियां उजाड़ देता है
अपनी ताकत से अंधेरा फैलाता हुआ
राहत की बात यह
कि उसकी सारी ताकत उसकी रफ्तार में होती है
इसलिए जितनी तेजी से आता है
उतनी तेजी से गुजर जाता है
सबसे ज्यादा विचलित करता समुद्र को
लेकिन एक और समुद्र होता है
मनुष्यों का
जहां एक दिन बदलता है मौसम
और उठ खड़ा होता है तूफान, जो
उसकी तरह अंधा नहीं होता
वह झोपड़ियों को नहीं उजाड़ता
लेकिन राजभवनों को बख्शता भी नहीं
उसकी तारीखें
मौसम विभाग के दफ्तर से जारी नहीं होतीं।

नरेश सक्सेना

Thursday, 24 May 2018

कवि हूबनाथ की कविता लड़कियां

हूबनाथ जी की कविताएं मुझे बेहद पसंद हैं। उनकी "मुसलमान" कविता तो रुला देती है।आप भी पढिये उनकी एक और कविता- विभा रानी

लड़कियाँ

लड़कियाँ
ख़तरनाक होती हैं
उनकी नेलपॉलिश से
रतौंधी हो सकती है
सैनिटरी नैपकिन्स
धर्म की जड़ें हिला देती है
ब्रा से
चूलें हिल जाती हैं
समाज की
नैतिकता की
उड़ जातीं हैंधज्जियाँ
पैंटी की डिज़ाइन से
जूतियाँ
मसल देती हैं धरती को
एड़ियों तले
जीन्स से
डगमगाने लगते हैं
डी एन ए
और सबसे ख़तरनाक तो
लिप्स्टिक्स
बाप रे
लिटरली
आग लगा देती है
और सोचो
अगर इन सबके साथ हो
एक अदद लड़की
तो हो सकती है
कितनी ख़तरनाक
यक़ीन न हो
तो पूछिए
धर्माधिकारियों से
शिक्षाशास्त्रियों से
नीतिनिर्माताओं से
औरों का तो पता नहीं
पर मेरा व्यक्तिगत अनुभव है
लड़कियां होती है
बेहद ख़तरनाक

             - हूबनाथ

Wednesday, 23 May 2018

पंकज चतुर्वेदी की सात कविताएं

1

दुख ऐसा मित्र है
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दुख ऐसा मित्र है
अक्सर साथ ही रहता है

और जब नहीं होता
अंदेशा रहता है :
कहीं मैं रास्ता
भटक तो नहीं आया !

2

खल है
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अपराधी है
खल है
पहले उसके संभ्रान्त
संरक्षक करते थे
अब वह ख़ुद आ गया है
प्रेस कॉन्फ्रेंस में

पत्रकारो ! उससे कोई
प्रश्न मत करो
इस बात को समझो

फ़िल्मकारो !
उदास हो जाओ
तुम जो परदा उस पर
डालकर रखते थे
और वही तुम्हारी कला थी
उसका यह
समय नहीं है

3

नीचे जो बैठे थे
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नीचे जो बैठे थे
उनसे जूझता हुआ देर तक
न्याय की उम्मीद में
ऊपर जब पहुँचा
हैरान रह गया :

मैंने कितना
समय गँवा दिया
यह जानने में
कि नीचे जो थे
आत्महीन और अशक्त थे

उनका अपराध
सिर्फ़ यह था
कि भय या प्रलोभनवश
निरीह पशुओं की तरह--
शीर्ष पर जो बैठा था--
उसके मौन या मुखर
आदेशों का
पालन कर रहे थे

4
ईश्वर का अचरज
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अत्याचारी कहता है
कि उस पर ईश्वर की
कृपा है
क्योंकि वह निर्बल को
सताने में समर्थ है

और अत्याचार का
शिकार भी
यही मानता है
क्योंकि वह मार खाकर
जीवित रहा आता है

एक ईश्वर यह
अचरज करता है :
'मैं तो हूँ ही नहीं
फिर मेरी कृपा का
इतना अपयश क्यों ?'

5

जहाँ तुम थीं
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जहाँ तुम थीं
वहीं होना
होना था

बाक़ी तो महज़
अस्तित्व की
अफ़वाह थी

6
उसके शहर में
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जब मैंने बताया
मैं लौट रहा हूँ
अपने शहर में

उसने इस बात से
ख़ुद को
अलगाते हुए कहा :
'अच्छी ख़बर है !'

7

एक विधायक का बयान
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मुझे लगता था
कि मैं पाँच करोड़ में तो
बिक ही सकता हूँ

मगर बाज़ार में
यह देखकर दंग रह गया
कि राजा के आदमी
मुझे ख़रीदने के लिए
सौ करोड़ रुपयों का
सूटकेस लेकर आये थे

उधर अदालत में
शिकायत हो गयी
सो मुंसिफ़ का हुक्म था :
'देखो, कोई बिकने न पाये !'

इसलिए मैं बिक नहीं सका
और राजा के आदमी
लौट गये
पूरे मुल्क में
प्रचार करने लगे
कि वे ईमानदार हैं
लिहाज़ा
दूसरों का ईमान
ख़रीदना नहीं चाहते

बनारस के बुनकरों पर राहुल वज्रधर की कविता खेत में संस्कृति

खेत में संस्कृति
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साहब!खेती करते देखा है
बुनकरों को
खेतों में नहीं
साड़ी में

बनाता है धागा
बनाता है अपने दिमाग की माप
जिसमें धागे निकलते हैं मष्तिष्क की
जो गाँस बना जाती है
हमारे सभ्यता और संस्कृति में

वह बनाता है कपड़ों पर रंग
और रख देता है मोहनजोदड़ों की ईंट
हुसैन की कलाकारी सा भरता है रंग
जैसे आँखों से उतरता है खून
जो वोदका के रंग सा दिखता है खूबसूरत

किमख्वाब,अतलस और
बनारसी पान से बनाता है छाप
और भर देता है देश का आँचल
साहब!क्या ऐसी खेती देखी है आपने?

वैशाली के पुरातात्विक चिन्हों
सा खिंचता है लकीर

दफ़्ती पर उतारता है
मनुष्य के कान और पेड़ के पत्ते
जैसे आम और जामुन के बीच
खड़ा होता है नंगा महुआ

बनाता है रंग,बनाता है साड़ी पर नक़्क़ाशी
जैसे दुल्हन के पाँव पर रची होती है मेहंदी
वहीँ से बनती है शर्म की गोलियाँ
और वहीँ से बनते है ज़िस्म पर छांह
क्या साहब! ऐसी खेती देखी है आपने?

राहुल वज्रधर

Monday, 21 May 2018

सिद्धार्थ की कविता माड़

माड़

चुपके से देख रहा हूँ
माँ डेकची से माड़ पसा रही है
आज भी शायद भात कम पड़ जायेगा
कल की तरह
और माँ माड़ से ही माज लेगी अपनी जीभ
जो पेट तक जाती होगी। 

कल ही मास्टर साहब स्कूल में कह रहे थे
कथा अश्वथामा की
जिसकी माँ पीसकर चावल
बना लेती थी दूध
मैं भी सोचता हूँ
सीखूँगा जरूर माड़ से भात बनाने का हूनर
और परोसूँगा कभी
भरपेट थाली
अपनी माँ के लिये। 

सिद्धार्थ

मनोज कुमार झा की कविता

इस तरफ से जीना

यहाँ  तो मात्र प्यास-प्यास पानी, भूख-भूख अन्न
                                          और साँस-साँस भविष्य
वह भी जैसे-तैसे धरती पर घिस-घिसकर देह

घर को क्यों धाँग रहे इच्छाओं के अंधे प्रेत
हमारी संदूक में तो मात्र सुई की नोक भी जीवन

सुना है आसमान ने खोल दिये हैं दरवाजे
पूरा ब्रह्मांड अब हमारे लिए है
चाहें तो सुलगा सकते हैं किसी तारे से अपनी बीड़ी

इतनी दूर पहुँच पाने का सत्तू नहीं इधर
हमें तो बस थोड़ी और हवा चाहिए कि हिल सके यह क्षण
थोड़ी और छाँह कि बाँध सकें इस क्षण के छोर .

जसिंता केरकेट्टा की कविताएं

जसिंता केरकेट्टा की कविताएं

                1

【 उससे मेरा संबंध क्या था ?】

वो आम का पेड़
ठीक यहीं था, सड़क किनारे
जहाँ से मुझे हर दिन
बस पकड़नी होती,
बस जब तक पंहुचती नहीं
वह मुझे तंग करता
पहले मेरी ओर एक आम फेंकता
मैं ख़ुश होकर जैसे ही दांत गड़ाती
"ये तो थोड़े खट्टे हैं" गुस्से में बोलती
वह हंसता
तुम बस में सोती रहती हो न !
यह नींद भगाने के लिए था,
अच्छा अब मीठे आम गिराता  हूं
सच्ची में !
औऱ तब तक बस आ जाती।

उस दिन बस पकड़ने सड़क पर पहुंची
वह गायब था।
सालों से मेरा ठीक यही इंतज़ार करता
वह आम का पेड़
कहाँ जा सकता है भला?
दूसरे दिन अखबार में पढ़ी
उसके मारे जाने की ख़बर।
मैं उस दिन खूब रोयी
जैसे मारा गया हो कोई घर का अपना
मैं उस दिन सोई नहीं रात भर
कैसे काट दिया गया वह यही सोच कर।

दूसरे दिन दौड़ी उधर
सोचा उसकी गंध समेट ले आउंगी
अपने आंगन में रोप दूंगी
उसकी गंध बढ़ेगी
तब मैं उसकी गंध लेकर
घर से निकलूंगी
लौटूंगी जब उसकी गंध को
आंगन में खड़ी पाऊँगी।

मगर मेरे सपने टूट गए
धूल का बवंडर जब हँसने लगा मुझपर
देखा, मेरे आम के पेड़ की गन्ध
धूल के बवंडर से लड़ रही थी
बिल्कुल गुत्थमगुस्था।
मैं भागी थाने की ओर
यह रपट लिखवाने कि
मेरे साथी की हत्या हुई है,
थाना ठहाके लगा कर हंसने लगा
डंडा दिखाता हुआ बोला
पहले तू बता
तेरा उसके साथ संबद्ध क्या था?

मैं आज तक दर दर भटक रही
यही बताने के लिए कि
उसके साथ मेरा संबंध क्या था
मगर वहां कोई नहीं अब
ग़ायब हो चुका है सब
अब सिर्फ़ दूर दूर तक धूल उड़ाती
चौड़ी सपाट सड़कें भर हैं....।

( चौड़ी सड़क के लिए कटे पेड़ों को देखते हुए...)

  
              2

【सपाट सड़क पर स्त्री】

कट चुके हैं पेड़
हो चुकी हैं झाड़ियां साफ
चमकने लगी है चौड़ी सड़क

चलती गाड़ी से उतर जब
सड़क पर पेशाब करते हैं पुरूष
ढूंढती हैं स्त्रियां
कहीं कोई पेड़
कोई झाड़ी की ओट
सपाट सड़क पर...

सपाट होता नगर
भेड़ियों से बचकर भागती स्त्रियों से
उनकी आड़ी तीरछी गालियां छीन लेता है
जंगल का ओट ख़त्म हो जाता है
दीवारों का सहारा मिट जाता है
भागती स्त्रियां दूर तक दिख जाती हैं साफ़
और भेड़िया हंसता रहता है

सपाट होते चेहरे पर
चेहरा और मुखौटा
दोनों एक सा लगता है
आँखे राज खोलती हैं
इसलिए उसे चेहरे से
ग़ायब करने के सौ जतन हैं
नाक के लंबे होते रहने की
कारणों की संख्या बढ़ा दी गई हैं
होंठ सिले हुए हैं किसी अदृश्य धागे से
और सवाल पूछने वालों की लाश
दरवाज़े पर पड़ी हैं कल रात से

सब कुछ सपाट होते इस देश में
असली खाईयां कहां भरी जाती हैं?
दिलों के भीतर के दीवार
कहां गिराए जाते हैं?
कहां जाए टुकड़ों में बंटी धरती
किस सरहद के पार
मांगने अपना पूरा पूरा हिस्सा ?

यहाँ मृगविहार में हिरणों के लिए
जंगल से आदमी खदेड़ा जाता है
और बाघों के बाड़े में ताउम्र
रहने को छोड़ा जाता है
यहाँ काले आदमी का
कालापन पाप बताया जाता है
उद्धार चाहने वालों के हाथों ही
सदियों से सताया जाता है

स्त्रियां इस सपाट सड़क पर
सपाट नगर में, सपाट चेहरे पर
सपाट होते देश के भीतर
ढूंढ रही है वह पेड़
किसी के लिए कभी
कोई दुवा जिससे मांगी थी
ढूंढ रही उस पड़ोसी का घर
जहां अपना पालतू कुत्ता छोड़ आई थी
वो रास्ता जिसके किनारे
ठहर कर कभी सुस्ताया था
वो गली, जिसके आख़िरी छोर पर
उसका तीसरा प्रेमी रहता था
भीड़ में एक वो चेहरा
जिसकी आंखें बहुत बोलती थी
और वह गली जहां खेलता बच्चा
बहुत सवाल पूछा करता था

वह सबकुछ सपाट करने के खिलाफ
लड़ती है कुछ इस तरह
कि जब आदमी कोशिश करता है
एक रंग को हर बार करना जिंदा
पानी फेरती हुई स्त्रियां धरती पर
करती है कई रंगों वाले बच्चों को पैदा।

                    3

स्त्रियों का ईश्वर
.......................
पिता और भाई की हिंसा से
बचने के लिए मैंने बचपन में ही
मां के ईश्वर को कसकर पकड़ लिया
अब कभी किसी बात को लेकर
भाई का उठा हाथ रुक जाता
तो वह सबसे बड़ा चमत्कार होता

धीरे-धीरे हर हिंसा हमारे लिए
ईश्वर की परीक्षा बन गई
और दिन के बदलने की उम्मीद
बचे रहने की ताक़त
मैं ईश्वर के सहारे जीती रही
औऱ मां ईश्वर के भरोसे मार खाती रही

मैं बड़ी होने लगी
औऱ मां बूढ़ी होने लगी
हम दोनों के पास अब भी वही ईश्वर था
मां की मेहनत का हिस्सा
अब भी भाई छीन ले जाता
और शाम होते ही पिता
पीकर उसपर चिल्लाते
वे कभी नहीं बदले
न मां के दिन कभी सुधरे

मैंने ऐसे ईश्वर को विदा किया
औऱ खुद से पूछा
सबके हिस्से का ईश्वर
स्त्रियों के हिस्से में क्यों आ जाता है?
क्यों उसके पास सबसे ज़्यादा ईश्वर है
औऱ उनमें से एक भी काम का नहीं
वह जीवन भर सबको नियमित पूजती है
फिर पूजे जाने और हिंसा सहने के लिए
ताउम्र बुत बनकर क्यों खड़ी रहती है ?

©जसिंता केरकेट्टा

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