Monday, 30 April 2018

सोनिया बहुखंडी की कविता ब्रेस्टकैंसर

ब्रेस्टकैंसर
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पृथ्वी सी  चंचल मेरी देह में
उसे पसंद थी मेरी दोनों धुरियां
ये धुरियां जिंदगी में डूब कर
ऋतुएं बना रही थी

वो अक्सर खो जाता था ठंडी-गर्म
ऋतुओं के बीच,
और देखता था वहां से निकलती दूध की नदियों को
जिसकी याद अब तक मेरे बच्चे के होंठो पर है

ऋतुएं डूबती रहीं परिवर्तन की गर्म बाल्टी में
उभर आई धुरियों में दो पॉपकॉर्न सी गांठे
पृथ्वी सुन्न!
जड़ से काट दी गई गांठों वाली धुरियां
छूट गया दूध की सूखी नदी का निशान
और एक सपाट मैदान

जब कोई कहता पृथ्वी का अंत निकट है
वो उम्मीदों की हंसी घोलता और कहता-
तुम दुनिया की सबसे सुन्दर गंजी औरत हो
दर्द की अनंत गुफाओं को पार कर मैं बाहर निकलती

क्योंकि पृथ्वी की गति बंद नहीं होती
वह सूर्य के चक्कर काटती रहती है
हाँ मौत सहम के जीवन के अंत में जरूर खड़ी हो जाती है
सूखी नदियों के निशान ताकते ताकते जीवन ठहर जाता है

मेरे बेटे के होंठो में खिल जाते हैं धुरियों की यादों के फूल
उसके मुस्कराने से मौसम बदल रहा है।

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