Sunday, 17 November 2013

तुम्हारा नाश हो {कविता}

तुम्हारा नाश हो {कविता}

तुमने भारत को माँ कहते ही

डाल दिए पत्थर उसके गुप्तांगो में

दाग दी गोली नृसंश बलात्कार के बाद

गोली गर्भ और मस्तिष्क को भेदती हुई मेडल में बदल गयी

तुमने भारत को माँ कहते ही


पहाड़ों को निचोड़ लिया स्तनों की तरह

और खींच कर उसका रक्त बेच दिया बिसलेरी की बोतलों में

हे भारत के माननीय

दलालों

तुमने हमारी जड़ जोरू और जमीन का सौदा किया

तुमने बेचीं

हमारी भाषा , संस्कृति, सोच,भावनाएं और आदर्श

तुम वादा करते रहे

हमारे ही उपजाए अनाज को हमारे पेट तक पहुंचाने का

और लिखते रहे भूख का इतिहास

विकास के नाम पर हमें सौप दिया

अयोध्या और गोधरा के उजड़े गाँव का नक्शा

क़ानून के नाम पर लिखा

कश्मीर मणिपुर बस्तर और भट्ठा परसौल

तुमने जय जवान कहते ही लूट ली बेटियों की अस्मत

जय किसान कहते ही बना दिया विदर्भ को श्मशान

जय विज्ञान कह कर बिठा दिया रसायनिक हथियारों के नीचे

हे भारत के तथाकथित उद्धारकर्ताओं

तुम्हारा नाश हो

अरमान।

Thursday, 7 November 2013

कविता पोस्टर {डायन} -अरमान आनंद

मैं हंसूंगी तुम्हारे ऊपर
लगाउंगी अट्टहास
आज होगी मौत मेरे हाथों
तुम्हारी बनायी हुई औरत की
और हो जाउंगी आजाद
बेख़ौफ़
मैं आजाद स्त्री हूँ
मेरे बाल खुले हैं
सिन्दूर धुले हैं
मैं स्तनों को कपड़ों में नहीं बाँधा
पांव में पायल नहीं पहने
मेरे वस्त्र लहरा रहे है।
तुम मुझे डायन कहोगे
कहोगे मेरे पाँव उलटे है
हाँ मेरे पाँव तेरे बनाये गलियों से उलट चलते हैं
मेरे हाथ लम्बे हैं
मैं छू सकती हूँ आसमान
मैं निकलूंगी अंधियारी रात में
बेख़ौफ़
तेरे चाँद को कहीं नाले में गोंत कर
और तेरे चेहरे पर ढेर सारी कालिख पोत कर


Friday, 1 November 2013

मौत के बाद क्या है? ( कविता)

ऐ रहगुजर , इतना बता मेरी मंजिल क्या है?
जिस रास्ते से गया है वो, वो रास्ता क्या है?
ये बिखरती राहें मुझे क्यूँ खींचती हैं
हूँ भटकता जिसकी चाह में , वो आरजू क्या है?
    जिन्दगी के तार पर मौत की रागिनी है छेड़ी,
    एक तार पकड़ खड़ा हूँ
    पर वो दूसरा तार क्या है?
    जी करता है उसे छेड़ दूं मगर,
    पता नहीं इसके बाद मौत मिले या जिन्दगी,
    मौत से प्यार है
    मगर , मौत के बाद क्या है??
     -अरमान आनंद
{ नोट-यह कविता फ़रवरी 2005में घूमता चक्र नाम की मासिक पत्रिका में आई थी।पत्रिका पटना बिहार  से निकलती थी। तब मैं 12वीं में था }

राजेन्द्र यादव (व्यक्तित्व एवं विचार )

                                         
                    राजेन्द्र यादव :व्यक्तित्व एवं विचार
                                       
दुनिया में एक धर्म ऐसा भी है जिसका मानना है कि दुनिया शैतान ने बनायी है| राजेन्द्र यादव को पढ़ते- सुनते हुए कुछ कुछ ऐसा ही महसूस होता है| क्योंकि अपने विरोधियों और समाज के सामंतों के लिए वे किसी शैतान से कम नहीं थे |मगर साहित्य की एक अपनी दुनिया जो उन्होंने तैयार की, वह बेहद जीवंत और क्रान्तिकारी मूल्यों से भरपूर थी|सच है की विवादों ने राजेन्द्र जी का साथ कभी नहीं छोड़ा , परन्तु विवादों के भय से कभी अपने शर्तों से समझौता किया हो ,ऐसा भी नहीं हुआ | राजेन्द्र यादव का कार्य क्षेत्र हिंदी साहित्य को एक अमूल्य धरोहर है | साहित्य में राजेन्द्र यादव की अपनी एक दुनिया का निर्माण किया , उनका एक पूरा का पूरा  स्कूल था |जिसने शिखर के साहित्य और साहित्यकार हिन्दी  को दिए|
                  राजेन्द्र यादव का जन्म २८ अगस्त १९२९ को आगरा में हुआ था|इनके पिता मिश्री लाल यादव डॉक्टर थे| माता का नाम श्रीमती तारा देवी था|सुरीर नमक जगह से मिडिल की परीक्षा पास करने के बाद ये चाचा के पास मवाना (मेरठ )आ गये|यहीं हॉकी खेलते हुए इनके पांव में चोट लगी |हड्डी निकालनी पड़ी और आजीवन विकलांगता के दंश को झेलना पड़ा|इस दौरान इन्होने काफी साहित्यिक पुस्तकों का अध्ययन किया |झाँसी से उन्होंने १९४४ में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की|आगरा विश्वविद्यालय से १९४९ में बी.ए.और १९५१ में एम.ए .की डिग्री हासिल की|एम. ए.में इन्होने प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त  किया|१९५४ में कलकत्ता गए और ६४ तक व हीँ रहे|कलकत्ता में ही ज्ञानोदय में दो बार अल्पावधि के लिए नौकरी भी की|१९६४ में राजेन्द्र जी दिल्ली आ गए और अक्षर प्रकाशन की स्थापना की|उनका विवाह मन्नू भंडारी के साथ२२ नवम्बर १९५९ को  हुआ था|१५८-५९ में जवाहर चौधरी के साथ अक्षर प्रकाशन की स्थापना की और करीब २५० पुस्तकों का प्रकाशन किया|१९८६ में अक्षर प्रकाशन बंद कर दिया और ज्यादतर किताबें राधाकृष्ण प्रकाशन को दे सोवियत संघ की यात्रा पर निकल गए |१९८९-९० में आई.आई.टी.कानपुर में अतिथि लेखक के  रूप में प्रवास किया | १९४७ में इनकी पहली कहानी  प्रतिहिंसा आयी|प्रेत बोलते हैं शीर्षक से पहला उपन्यास लिखा जो बाद में सारा आकाश के नाम से प्रकाशित हुआ|इन्होने अपने जीवन काल में अनेक पुस्तकों की रचना की|
कृतित्व:-
कहानी संग्रह- देवताओं की मूर्तियाँ १९५१ ,खेल -खलौने १९५३,जहाँ लक्ष्मी कैद है १९५७,अभिमन्यु की आत्महत्या १९५९ ,छोटे -छोटे ताजमहल १९६१, किनारे से किनारे तक १९६२ ,टूटना १९६६,चौखट तोड़ते त्रिकोण १९८७,श्रेष्ठ कहानियां,प्रिय कहानियाँ, प्रतिनिधि कहानियां,प्रेम कहानियां चर्चित कहानियां ,मेरी पच्चीस कहानियां,ये जो आतिश ग़ालिब २००८ |
उपन्यास - सारा आकाश १९५९ ,उखड़े हुए लोग १९५६,कुलटा १९५८,शह और मात १९६९ ,अनदेखे अनजान पुल १९६३,एक इंच मुस्कान मन्नू भंडारी के साथ१९६३,मन्त्र-विद्ध१९६७,एक था शैलेन्द्र २००७,
कविता संग्रह - आवाज है तेरी२०६०  
समीक्षा निबंध - कहानी :स्वरुप और संवेदना १९६८,प्रेमचन्द की विरासत १९७८,अठारह उपन्यास १९८१,कांटे की बात (बारह खण्ड )१९९४,कहानी :अनुभव और अभिव्यक्ति१९९६, उपन्यास -स्वरुप और संवेदना १९९८,आदमी की निगाह में औरत २००१,वे देवता नहीं हैं २००१,मुड़-मुड़ के देखता हूँ २००२,अब वे वहां नहीं रहते २००७,
साक्षात्कार-मेरे साक्षात्कार१९९४,जवाब दो विक्रमादित्य २००७ (साक्षात्कार),काश मैं राष्ट्रद्रोही होता२००८ .यातना संघर्ष और स्वप्न २०१० 
संपादन-प्रेमचंद द्वारा स्थापित पत्रिका हंस का अगस्त १९८६ से मृत्युपर्यंत संपादन,एक दुनिया समानांतर१९६७ , कथा दशक हिंदी कहानियां(१९८१-९०) ,आत्मतर्पण१९९४,दिल्ली दूर है १९९५,काली सुर्खियाँ १९९५(अश्वेत खानी संग्रह ),कथा यात्रा १९६७ औरत:उत्तर कथा २००१,अतीत होती सदी और त्रासदी का भविष्य २०००,,देहरी भई बिदस,कथा जगत की बागी मुस्लिम औरतें ,हंस के शुरूआती चार साल २००८,वह सुबह कभी तो आएगी २००८ (साम्प्रदायिकता पर लेख )
अनुवाद :टक्कर-चेखव  ,हमारे युग का नायक-लार्मंतोव,प्रथम-प्रेम-तुर्गनेव,वसंत-प्लावन -तुर्गनेव,एक मछुआ-एक मोती -स्टाइनबैक,अजनबी-कामू,नरक ले जाने वाली लिफ्ट २००२,स्वस्थ आदमी के बीमार विचार-२०१२ 
नाटक-चेखव के तीन नाटक (सीगल,तीन बहने,चेरी का बागीचा)
राजेन्द्र यादव से सम्बंधित रचनाएँ- 
हमारे युग का खलनायक राजेन्द्र यादव -साधना अग्रवाल ,शिल्पायन प्रकाशन , दिल्ली, २००५ 
२३ लेखिकाए और राजेन्द्र यादव -संपादन -गीताश्री किताबघर प्रकाशन नईदिल्ली २००९
राजेन्द्र यादव मार्फ़त मनमोहन  ठाकौर -कमला ठाकौर राधाकृष्ण प्रकाशन १९९९ 
राजेन्द्र यादव का साहित्य में योगदान और हंस (आलेख isahitya.com ब्लॉग पर )
इनका निधन २८ अक्टूबर २०१३ को रात्रि के बारह बजे हुआ |
सात्र ने कहा था-" किसी व्यक्ति के विचारों  की समीक्षा  उसकी मृत्यु के बाद ही की जा सकती है"|साहित्य में उनके महत्वपूर्ण योगदान पर जब बात की जाए तो कमलेश्वर और मोहन राकेश के साथ नई कहानी के नायक  के रूप में राजेन्द्र यादव को याद किया जायेगा,साथ ही हिंदी साहित्य में दलित और स्त्री विमर्श के प्रथम पैरोकार के रूप में उनकी छवि दिखती है||तीसरा सबसे बड़ा और यादगार योगदान है हंस का २८ वर्षों तक सफल रूप से संपादन |प्रेमचंद ने अपने आखिरी दिनों में दो चिंताएं जाहिर कीं|पहला तो यह की उन्होंने जैनेन्द्र को कहा अब आदर्श से काम नहीं चलेगा और दूसरा शिवरानी से हंस को उनकी याद के रूप में चलते रहने की गुजारिश की|इस सम्बन्ध में प्रकाश चन्द्र गुप्त लिखते हैं ...इसके लिए उन्हें अंग्रेज सरकार को एक हजार रूपये की जमानत भी देनी पड़ी तथा हंस का स्वामित्व  भारतीय परिषद् से वापस अपने हाथों में लेना पड़ा| इन्हीं दिनों 'हंस' से एक हजार रूपये की जमानत मांगी गयी |सरकार ने सेठ गोविन्ददास के एक नाटक पर आपत्ति की थी |भारतीय परिषद् ने पत्र को बंद करने का निश्चय किया और इस आशय की सूचना भी प्रेमचंद के हस्ताक्षर से दे दी|प्रेमचंद ने गाँधी जी को इस सम्बन्ध में पत्र लिखा |गाँधी जी का निर्णय था-"यदि प्रेमचंद हंस को प्रकाशित करते रहना चाहें ,तो करें|" प्रेमचंद ने हंस को अपने हाथों में ले लिया और जमानत की रकम जमा करवा दी गई|उन्होंने शिवरानी से कहा "रानी तुम हंस की जमानत करवा दो ,चाहे मैं रहूँ या न रहूँ , 'हंस' चलेगा |यदि मैं जिन्दा रहा ,तो सब प्रबंध कर दूंगा |यदि मैं चल दिया तो यह मेरी यादगार होगी| (पृष्ठ सं.-५१ भारतीय साहित्य के निर्माता प्रेमचन्द  -प्रकाशचन्द्र गुप्त,२००८ संस्करण  ,साहित्य अकादमी ) प्रेमचंद के बाद हंस को उनके पुत्र अमृत राय ने चलाया|बाद के  दिनों में यह पत्रिका बंद हो गयी|राजेन्द्र यादव ने प्रेमचन्द के मानस पुत्र के रूप में इस पत्रिका को चलाने का बीड़ा उठाया और प्रेमचन्द की इच्छा का सम्मान करते हुए अगस्त १९८६ से हंस पत्रिका पुनः आरम्भ की, साथ ही उनके अंतिम वाक्य को अपना सूत्र वाक्य भी बनाया की सिर्फ आदर्श से काम नहीं चलेगा|हंस संपादन के दौरान उन्होंने ढूंढ -ढूंढ  कर अनछुए यथार्थ को ढूँढ निकला , लिखा और लिखवाया|मैत्रेयी पुष्पा लिखती हैं ...."जब मैंने उपन्यास लिखना शुरू किया ,तो उन्होंने एक खास सलाह मुझे दी|उन्होंने कहा ,ग्रामीण स्त्री के बारे में तुम लिखती हो ,यह मैदान खाली है |तुम्हारा यह जो अनुभव है , इसे यदि तुम अपने लेखन में इस्तेमाल करो तो तुम सबको पछाड़ सकती हो |उसके बाद मैं गांव की हो गई|मैंने गांवों को छान डाला और गांवों में समा गई|" (हिन्दुस्तान सम्पादकीय लेख न जाने कैसा दिल था दिल राजेन्द्र यादव का-मैत्रेयी पुष्पा ३० अक्तूबर २०१३ से )राजेन्द्र यादव  न केवल विषय और शैली बल्कि लेखक के व्यक्तिव निर्माण पर भी काफी ध्यान  देते थे|विमर्शों को व्यक्तित्व में रूपांतरित होते देखना उनका सपना था|इसी लेख में मैत्रेयी लिखती हैं ..."मैं दो घंटे तक बहार बैठी रही |जब उन्हें बताया ,तो वह बोले ,'बेवकूफ हो क्या ? दो घंटे तक बाहर बैठी रही अन्दर क्यों नहीं आ गयी?वह जो कुछ पूछते मैं सर नीचे करके जवाब देती|थोड़ी देर बाद उन्होंने कहा,'सर उठा कर बात करो'|सर उठा कर बात करने की उनकी वह सलाह मेरे लिए एक सबक थी|" नए लेखकों के प्रति उनके समर्पण एवं       विश्वास के बारे में स्वयं उनकी पत्नी मन्नू भंडारी लिखती हैं - "अपने लेखन के प्रति ये जितने निष्ठावान हैं दूसरों को लेखक बना देने की दिशा में में भी उतने ही उत्साही|यदि किसी में जरा सी भी प्रतिभा दिखाई दे जाए तो उसे हर प्रकार से मदद करना ,प्रेरित करना ,उसके साथ घंटों बर्बाद करना इन्हें नहीं अखरता |कलकत्ते में जब नया -नया घर बसाया था ,संयोग से नौकर भी कहानीकार ही मिला था |जिस दिन इस रहस्य का उद्घाटन हुआ था ,उसके दूसरे दिन ही इन्होने उसकी सारीकहानियाँ सुनीं,फिर दो घंटे बैठकर कहानी की टेक्नीक पर भाषण देते रहे ..."
यथार्थवादी ,प्रगतिशील एवं लोकतान्त्रिक होने के बावजूद राजेन्द्र यादव परंपरा और क्लासिक का एक बारगी तिरस्कार नहीं करते थे ,उन्हें सिर्फ सामंती परंपरा से चिढ थी| धरोहरों के प्रति उनके मन में अगाध सम्मान था | इतिहास के बरक्श आधुनिकता की इस खोजी प्रवृति के वे धनी व्यक्ति थे|इस सम्बन्ध में विचार रखते हुए  हंस के छब्बीसवें वर्ष के पहले अंक के  संपादकीय (हंस, अगस्त २०११)में राजेन्द्र जी ने लिखा था .."सही है की क्लासिकल संगीत या आधुनिक चित्रकला में मेरी गति नहीं है|मगर यह कहना ज्यादती है की मैं इन्हें सामंती कह कर तिरस्कृत करता हूँ , सूर्य मंदिर ,अजंता ,एलोरा या ताजमहल हमारी ऐसी धरोहर हैं ,जिनपर हमें गर्व है|निश्चय ही मैं वहां अकेला या मित्रों के साथ जाऊंगा और अपने को उस युग में स्थानांतरित करके एक नई उर्जा और प्रेरणा के साथ लौटूंगा |हो सकता है आज के लिए कुछ उपयोगी को भी मन में बाँध लाऊं|मगर निश्चय ही मैं अपना घर बना कर वहां रहने नहीं जाऊंगा |वे किसी भी क्लासिक ग्रन्थ की तरह मेरे पास सुरक्षित हैं और उनका वहां हों ही मुझे आश्वस्ति और बल देता है| " कहीं एक वाक्या सुना था कि एक बार एक  लेखक की कोई रचना छपी थी, तो उन्होंने अपने  गुरूजी  को गाँव में फोन करके बताया की उनकी रचना छपके आई है|गुरु जी ने तपाक से पूछा हंस में आयी है क्या? यह है हंस की लोक व्याप्ति और राजेन्द्र यादव का संपादकीय कौशल |जमाना था की लोग तब तक किसी को लेखक नहीं मानते जब तक वह हंस में न छपता|दूसरी बड़ी बात यह थी की हंस के असाहित्यिक पाठकों की भी बड़ी संख्या थी|यह एक मात्र साहित्यिक पत्रिका है, जिसे सुदूर गांवों में भी देखा जा सकता है|मुझ जैसे न जाने कितने साहित्यिक व्यक्ति होंगे जिनका साहित्य के प्रति अनुराग हंस को पढ़-पढ़ कर पैदा हुआ है|प्रख्यात आलोचक मैनेजर पाण्डेय इस बाबत बात करते हुए लिखते  हैं -राजेन्द्र यादव के हंस विवेक को प्रभावशाली बनाने में मदद करती है उनकी जानदार और असरदार भाषा |राजेन्द्र यादव के सम्पादकीयों की भाषा जनतांत्रिक है और संवादधर्मी भी|(पृष्ठ -४५, राजेन्द्र यादव का हंस-विवेक,पाखी पत्रिका ,सितम्बर २०११ ) खुद राजेन्द्र यादव भी भाषा के बारे में अपने विचार स्पष्ट करते हुए कहते हैं "व्यक्तिगत रूप से मैं नहीं मानता की विचार की संश्लिष्टता और भाषा की जटिल दुरूहता एक दुसरे के पर्याय हैं| भाषा तभी उलझती है जब या तो विचारों की अस्पष्टता हो ,या अंग्रेजी में सोचा हुआ वाक्य ज्यों का त्यों हिंदी में उतार देने की जिद हो |"(पृष्ठ८५ ,कांटे की बात -४ )भाषा और विचार के संबंधों के उदाहरण के तौर पर मैं प्रेम जैसे क्लिष्ट विषय का उदाहरण दे रहा हूँ ,जिसे पारिभाषित करने के लिए  सदियों  लिखा जा रहा है और सदियों तक लिखा जायेगा|परन्तु राजेन्द्र जी जब इसे व्यख्यायीत करते हैं, तो कहते हैं -"प्रेम वह है जो हमें सोलह-सत्रह साल की अवस्था में पड़ोस के छत वाली लड़की से हो जाता है|"... हंस के सम्बन्ध में हमेशा से एक सवाल उठता रहा है की क्या हंस वही हंस है जो प्रेमचंद का था ?मेरे विचार से तो नहीं ,क्योकि पत्रिकाओं का स्वरूप तो समाज और वैचारिकी की दिशा और दशा तय करती है|प्रेमचंद ने अपने आखिरी दिनों में जैनेन्द्र से कहा अब वैचारिकी से काम नहीं चलेगा मतलब जिस आदर्श की वकालत वो सम्पूर्ण जीवन करते रहे अंत समय में उसे ख़ारिज कर दिया |राजेन्द्र यादव का हंस उत्तरोतर समाज का हंस है ,जिसकी अपनी  वैचारिकी और दिशा है|राजेन्द्र यादव अपने हंस में भी परिवर्तन की मांग को लेकर काफी उत्सुक थे |उन्होंने लिखा .."हंस के छब्बीसवें वर्ष के पहले अंक से ही यह सवाल भी जुदा है की क्या अब पत्रिका के चले आ रहे रूप में कुछ बदलाव आएगा या वहां कुछ परिवर्तन होंगे? सच पूछा जाय तो परिवर्तन तो होते रहे हैं ...(हंस पत्रिका ,अंक ,अगस्त २०११ ) आलोचक मैंनेजर पाण्डेय कहते है.."राजेन्द्र यादव के हंस के हर अंक में उसे 'जन चेतना का प्रगतिशील कथा मासिक ' कहा जाता है|इस कथन में जो प्रगतिशील है वह राजेन्द्र यादव के हंस को प्रेमचंद के हंस से जोड़ता है|तो क्या राजेन्द्र यादव के हंस की प्रगतिशीलता वही है जो प्रेमचंद के हंस की थी|जी नहीं ,प्रेमचन्द की प्रगतिशीलता भारत में और हिंदी में आधुनिकता के आरम्भिक काल की प्रगतिशीलता थी, उसका सम्बन्ध प्रगतिशील आन्दोलन के आरंभिक दौर से भी था, जबकि राजेन्द्र यादव की प्रगतिशीलता उत्तर आधुनिक समय  की है,अस्मिता विमर्श के दौर की |मैं पहले भी लिख चुका हूँ की प्रेमचंद के हंस और राजेन्द्र यादव के हंस में वही फर्क है जो प्रेमचंद और राजेन्द्र यादव के बीच है|"(पृष्ठ -४५, राजेन्द्र यादव का हंस-विवेक,पाखी पत्रिका , सितम्बर २०११ ) 
राजेन्द्र यादव ने भारत की दो अभिशप्त जातियों को उद्धार का भी रास्ता दिखाया ,वे हैं स्त्री जाति और दलित जाति|अपने उपन्यासों और हंस के द्वारा उन्होंने एक वैचारिकी पैदा की जिससे इन दोनों जातियों में समर्थ और प्रतिबद्ध लेख और लेखक पैदा हुए |स्त्रीवादी विमर्शकार लान्का ने कहा था "WOMEN DOES NOT EXIST".ओशो इसी को व्याख्यायित करते हुए अपने शब्दों में कहते हैं-'नारी और क्रांति ',स्त्री मुक्ति के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा था - इस सम्बन्ध में बोलने को सोचता हूँ ,तो पहले यही ख्याल आता है कि नारी कहाँ है? नारी का कोई अस्तित्व ही नहीं है |माँ का अस्तित्व है,बहन का अस्तित्व है,बेटी का अस्तित्व है,पत्नी का अस्तित्व है,नारी का कोई भी अस्तित्व नहीं है|(सम्पादकीय ,नारी और क्रांति -ओशो,हिन्द पॉकेट बुक्स) राजेन्द्र यादव इस सम्बन्ध में कहते हैं-"पुरुष की अपेक्षा स्त्री देह में ज्यादा कैद है|वह अपने देह से ऊपर उठाना या उसे भूलना भी चाहे ,तो न  प्रकृति उसे ऐसा करने देगी ,न समाज |उसका सारा सामाजिक  मूल्यांकन ,सबसे पहले उसके शरीर का मूल्यांकन है|  गुण तो बाद में आते हैं |वह एक ऐसी दृश्य वास्तु है जिसे अपनी सार्थकता पुरुष की निगाह से सुन्दर और उपयोगी लगने में ही है |" (कांटे की बात -३ पृष्ठ १५६ ) यह व्यंगोक्ति एक बड़ी वीभत्स सामजिक मानसिकता की तरफ इशारा करती है|जिससे स्त्री मुक्त करने का सपना राजेन्द्र यादव ने देखा था |एक दलित विमर्शकार के तौर पर राजेन्द्र यादव साम्प्रदायिकता और ब्राह्मणवाद दोनों के धुर विरोधी व्यक्ति थे |दलित प्रश्नों के परिप्रेक्ष्य में शीर्षक आलेख में बजरंग बिहारी तिवारी लिखते हैं -''धर्म का उन्मादी आग्रह जब राजनीतिक शब्दावली अख्तियार करता है , उग्र राष्ट्रवाद की सृष्टी होती है |इसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद कहते हैं |राजेन्द्र यादव इसे सवर्ण पुरुष सत्ता का दुश्चक्र मानते हैं |इसमें पिसती हैं स्त्रियाँ ,अल्पसंख्यक और दलित|दलित विमर्श सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से जूझे बिना आगे नहीं बढ़ सकता ?लेकिन क्या दलित लेखन में ऐसी तैयारी दिखाई पड़ती है?इस प्रश्न को राजेन्द्र जी भविष्य पर छोड़ देते हैं|हिंदूवादी राष्ट्रवाद से जुड़े खतरों की पहचान करते -कराते रहना उन्हें अलबत्ता जरूरी कार्यभार लगता है|उनके सम्पादकीय भगवा ब्रिगेड को हर वक्त हित करते रहते हैं|'अपना मोर्चा' कालम इसका सबूत है ,अपने विरोधियों को जगह देना ,उनकी बातें छापना ,अधिकांश पाठकों के लेखे राजेन्द्र जी के जनवादी सोच का प्रमाण हैं|...राजेन्द्र जी सत्ता प्रतिष्ठान का विघटन चाहते हैं और फिर उसकी पुनर्रचना  |(पृष्ठ-१२० पाखी ,अंक -सितम्बर २०११) दलित लेखक कँवल भारती ने राजेन्द्र यादव को कबीर जैसे तेवर का व्यक्ति बताते हुए लिखा था -राजेन्द्र यादव के पास यह दृष्टी इसलिए है क्योंकि उनके पास साहित्य का एक एजेंडा है -समाज को  सुधारने का नहीं ,समाज को बदलने का ,जिसमें दलितों आदिवासियों और स्त्री मुक्ति के सवाल केंद्र में हैं |इस एजेंडे ने हिंदी के उन  तथाकथित महान लेखकों को कहीं का नहीं छोड़ा  था ,जो अभिजात चिंतन को ही मुख्यधारा का चिंतन समझ रहे थे |उनका सारा भ्रम ही नहीं टूट गया जमीन भी दरक गयी जब राजेन्द्र यादव ने वास्तविक मुख्यधारा का निर्माण शुरू  किया |(कबीर जैसा तेवर ,पृष्ठ ११० पाखी सितम्बर २०११ )साम्प्रदायिकता के मामले में राजेन्द्र यादव हिन्दू और मुस्लिम दोनों कट्टरपंथियों का विरोध करते थे |सीबा असलम फहमी और तसलीमा के आलेखों को हंस में स्थान देकर उन्होंने इस बात की पुष्टि की |राजेन्द्र यादव के प्रतिरोधी स्वर की बात जब भी प्रियदर्शन उठाते हैं तो कहते हैं -उनकी निगाह में वर्चस्व के तीन रूप प्रमुख हैं -तीन सत्ताएँ जो इस समाज में अन्याय और गैर बराबरी की बड़ी वजह बनी हुई हैं |राजनैतिक सत्ता ऐसी पहली सत्ता है|दूसरी सत्ता धर्म की है -जिसे ईश्वर नाम के सम्राट के सेनापति और अनुचर चलाते हैं, और तीसरी सत्ता पुरुष वर्चस्व की है जो सदियों में आधी आबादी को गुलाम बनाये रखने में कामयाब रही है |जब इन तीनों सत्ताओं को चुनौती देने की कोशिश की जाती है ,तो समाज के ताकतवर तबके इसके विरूद्ध खड़े हो जाते हैं |हंस भी ऐसी बगावतों का गुनाहगार माना जाता रहा है|धार्मिक और नैतिक सत्ताएँ हंस के हमलों से तिलमिलाती रही हैं...(राजेन्द्र यादव होने का मतलब पृष्ठ, ७८ पाखी,अंक सितम्बर २०११ )
 अब अंत में:-
                            एक आलेख में इतने उर्वर मस्तिष्क को समेटना बहुत मुश्किल है|शेष फिर कभी.. आज राजेन्द्र यादव हमलोगों के बीच नहीं हैं |उनके वैचारिक आयाम  और प्रतिबद्धता उनकी रचनाओं और हंस के पन्नों  में बिखरी पड़ी है|वे खुले जीवन और वैचारिकी में विश्वास रखने वाले व्यक्ति थे| जरुरत है आज उस वैचारिक विरासत को आगे बढ़ाने की |समाज और साहित्य के प्रति किये गए उनके प्रतिदान की अहमियत को बनाये और बचाए रखने की |मैं यह सोचता हूँ कि  आवारा मसीहा या गुनाहों का देवता भाग दो लिख दी ही जाये |राजेन्द्र राव ने तो उन पर गुनाहों का देवता नाम ने संस्मरणात्मक आलेख पाखी के सितम्बर २०११ में लिख ही मारा है|परन्तु  मेरा मानना है की कथा नायक के रूप में राजेन्द्र यादव का आना काफी दिलचस्प होगा|एक उपन्यास और एक नायक के सारे कंटेंट राजेन्द्र यादव में मिलते हैं|८४ साल तक जवानी को जीने वाले और समाजिक वर्जनाओं को तोड़ कर गिरा देने वाले उस योद्धा के लिए मशहूर कथाकार संजीव ने कहा था..राजेन्द्र यादव के न होने से फर्क पड़ता है|....
                                                              अरमान आनंद (शोध-छात्र ,हिंदी विभाग बी.एच.यू.) 

Thursday, 31 October 2013

प्रेम कविता - अरमान आनंद

मेरे जीवन का पहला गीत

जो मैने तेरे साथ गाया था

मेरे प्यार की तरह अधूरा  है

मेरा बचपन तेरे स्कूल के पुराने बस्ते में कहीं पड़ा है

और मेरे पास रह गया है

तेरा आखिरी चुम्बन उधार की तरह

दिन की रौशनी  दुनिया  अधूरी दिखाती है

रात के अंधेरे में तुम उभर आती हो जेहन में 

सुकून क़ी तलाश में

मैंने ना जाने  कितनी छातियाँ टटोल डाली

प्यार की तलाश में  कितने दिलों के गुलल्क तोड़ डाले

तेरी खुशबू पा सकूं सो कितने जूड़े खॊल डाले

कहाँ मिली तुम

नहीं मिली

क्यों नहीं लौट आते तुम मेरी पहली मुहब्बत

तेरे बिना दिल जंगल होता जा रहा है।...

अरमान आनंद

अँधेरे में

डूबता हुआ यह अँधेरा
और गहरा 
और गहरा
क्या जल्दी सबेरा लायेगा?
कहीं इस अँधेरे ने
सूरज को निगल लिया हो
कहीं सूरज अँधेरे में जाकर बस ना गया हो
निकला भी तो कहीं अँधेरे से सांठ-गाँठ कर के न निकले
सुबह के इंतज़ार में जनता अँधेरे की अभ्यस्त हो गयी तो
अँधेरा सवाल है
कई कई सवाल
कई कई आशंकाएं
अँधेरा चुप निः स्तब्ध
चोरों को भी  इंतज़ार रहता है अँधेरे का
मासूम जानवरअँधेरे में सो जाते है
उल्लू अँधेरे में ही देख पाता है
नेताओं को दिन में भीअँधेरा चाहिए
कितना अंधेर है
और इतनाअँधेरा
मैं जाग रहा हूं अँधेरे में
टटोल टटोल कर जगा रहा हूँ  आँखें
हाथ को मशाल ढूंढती है
निराशा को आशा
मृत्यु को जीवन
नीरस को रस
असत्य को सत्य
ये युद्ध का आरंभ है
पराजय को विजय ढूंढती है
अँधेरे में अँधेरे को खत्म करने के लिए  रौशनी ने ढूंढना शुरू कर दिया है।
छोडो सूरज का इंतज़ार
देखो दिया कहाँ है.... ....
अरमान

विचार

# सभ्यता के विकास की कहानी समाज में नैतिकता के ह्रास तथा हिंसा के विकास की भी कहानी है। राम ने भाई के लिए राज्य त्याग दिया वहीँ कृष्ण ने राज्य लिप्सा कोअधिकार कह कर गीता का उपदेश दिया और भाइयों के खूनसे महाभारत की गाथा लिखी। रावण सीता का अपहरण तो करता है परंतु स्पर्श नहीं करता। वहीँ अपनी बीबी को जुए में दांव पर लगाने वाले पांडव और भाभी को जंघा पर बैठने काआमन्त्रण देने वाले कौरवों की कथा विकसित समाज की कथा है। निश्चय  ही विकास और आधुनिकता का सम्बंध कहीं भी नैतिकता के िवकास से नहीं है। आधुनिकता समय मात्र के सापेक्ष होती है। समय समाज में  नैतिकता के ह्रास का साक्षी भी है। सतयुग से कलयुग का सफ़र इसका प्रमाणहै।
आधुनिकता समय मात्र के सापेक्ष होती है। अर्थात मूल्यों के  विकास और मनुष्यता को भी आधुनिकता आपने एजेंडे और आयाम में रखती तो यह समाज के लिए हितकारी सिद्ध होती। परन्तु ऐसा बिलकुल नहीं है समय मात्र के आधार पर हम पुरानाऔर नया तय कर रहे। खासकरआज के समाज में  यह प्रवृतिऔर भी अधिकहै जब इसने पुराने को विकृत मान कर त्याग दिया है। पुरानी परंपरा में जो शोध रूप में था ,व्यवस्थित था । समाज और संवेदनाओं के लिए हितकारी था उसका भी परित्याग कर दिया।
सनद रहे आधुनिकता को इतिहास के सापेक्ष होना चाहिए न कि समय के।..
#शर्तों से बंधी आजादी और गुलामी में बस शब्दों की हेराफेरी है।-अरमान

#भ्रष्टाचार मुक्त देश नेता नहीं नैतिकता बनाएगी। आप अपने चरित्र में तरक्की करें देश खुद आगे बढ़ेगा। अरमानआनंद

#सत्ता की स्थापना के लिए स्वयं का सांस्कृतिक संलयन और विपक्ष का सांस्कृतिक विघटन आवश्यक होता है।- अरमान

#गुजरात से दो लोग चले... भारत बदलने का सपना लेकर महात्मा गाँधी और मोदी.... गाँधीका सपना राम राज्य... मोदी का राम का ही राज्य हो...
# "शून्य" का जन्म भारत में हुआ। आज सम्पूर्ण भारत शून्यता रोग से ग्रस्त है। सांस्कृतिक शून्यता बौद्धिक शून्यता राजनैतिक शून्यता आर्थिक शून्यता.. काश हम शून्य से आगे भी सोच पाते...

Saturday, 15 June 2013

चेहरे

जब कोई कहता है
दुनिया में
हर चेहरे के
दो चेहरे होते हैं
और
हर चेहरे से दिखने वाले
सात चेहरे
मैं मुस्कुराता हूँ
मेरी आँखें
अम्मा और बाबूजी की
तस्वीर पर टंग जाती है।

अरमान आनंद

Saturday, 1 June 2013

घर

एक छत जिसे दुनिया पिता कहती है।
एक दीवार जो माँ कहलाती है।
इस घर की खिड़की कितनी हसीन दिखती है ये दुनिया....

जब से घर से निकला हूँ....दुनिया का चेहरा स्याह पड़ता जा रहा है।
दूर से मेरा घर आज हसीन नज़र आ रहा है।...

औरत © armaan anand

वह एक लड़की की तरह दौड़ कर आई
उसने माँ की तरह मुझे सीने से चिपका लिया
वह एक बहन की तरह सुनती रही मेरे दर्द को
एक वेश्या की तरह उसने गम के अपने अन्दर निचोड़ लिया
मुझे मर्द बनाने वाली उस औरत के कई चेहरे हैं
और आज कई चेहरों वाली ये दुनिया मुझे अच्छी लग रही है।
अरमान

ख़ूबसूरत

तुम बहुत ख़ूबसूरत हो
मै
मैं तुम्हें प्यार करना चाहता हूँ
अगर मैं इजाजत न दूं तो
तो भी मैं चाहता रहूँगा
कल अगर मैं खूबसूरत ना रही तो
तो हमारे प्यार से हमारा कल ख़ूबसूरत होगा
और मैं न रही तो
हम या तुम तो आते जाते रहेंगे
मगर प्यार
ये खूबसूरत है और ये हमेशा रहेगा..

प्रेम कविता9

मैं
प्यार में हूँ
मैं तब भी था
जब तुम नहीं थी
जब कुछ भी नहीं था
मेरा जन्म ही प्यार से और प्यार के लिए हुआ है
दुनिया का सारा संघर्ष इसी के लिए तो है
सारे दर्शन इसी से तो हैं
मैं रहूँगा
प्यार में हमेशा
अनंत कालों तक
तुम्हें आना होगा
बार बार
जब भी प्यार बुलाएगा।...
अरमान

प्रेम कविता8

कभी कभी मुझे लगता है
मेरे लगने से क्या होता है?
कभी कभी मेरा दिल चाहता है
मेरे चाहने से क्या होता है?
कभी तुझको भी लगे
कभी तेरा भी दिल चाहे
तो बताना जरुर
ना बताने से जिन्दगी अफ़सोस बनके रह जाती है
-अरमान

Wednesday, 17 April 2013

साल सोलहवां


जब भी खिलखिलाता हूँ
मैं सोलह का हो जाता हूँ।
जब भी मुस्कुराता हूँ
मैं सोलह का हो जाता हूँ
तेरी यादों के साथ ही
लौट आता है मेरा सोलहवां साल
जब भी यादों में तुझे प्यार करता हूँ
सोलह का हो जाता हूँ
जब भी देखता हूँ
झुरमुट में लिपटा हुआ कोई कमसिन जोड़ा
किसी के बालों में उलझा हुआ कोई अल्हड सा छोरा
सोलहवें की कसम मैं दिल खोल गाता हूँ
तेरा अक्स मेरी आखों से छुटता नहीं।
सोलह से मेरा रिश्ता अब टूटता नहीं।
अरमान

युवा कवि रामाज्ञा शशिधर की कविता मुठभेड़ की व्याख्या।

युवा कवि रामाज्ञा शशिधर की  कविता मुठभेड़ सत्ता की विषाक्त जड़ता के प्रति एक प्रतिक्रिया है। यह कोमल सपनो का आन्दोलन है। जीवन्तता की जद्दोजहद के लिए छेड़ा हुआ जिहाद है। जिसे सत्ता और उसे बघनखे मौत की आक्रांत शांति देने की फ़िराक में हैं।
कविता की शुरुआत गिलहरी से होती है। जो प्रतिनिधि है उस तमाम मासूम जनता की जिसे चुपके से सत्ता अपनी हवस और शौक का शिकार बना रही है। फुदकती हुई मासूम गिलहरी का पेड़ की छाल में बदल जाना दरअसल सत्ता द्वारा आम जनता की आजादी को निचोड़ उसे संसाधन में परिणत करने के बाद बाजार में परिवर्तित करने की प्रक्रिया है ।उस बाजारीकरण के प्रति उसकी कर्तव्यनिष्ठा है सत्ता जिसकी दलाली करती है।
कवि सत्ता के स्वभाव की नयी व्याख्या में व्यक्त करता है कि सत्ता ने पगडंडियों को ध्वस्त कर दिया है बुटों और एडियों से उसके नामोनिशान मिटा दिए हैं। पगडंडियों के साथ मिटाए हैं उसने दिशाओं के स्वरुप और संस्कार। दिशाओं के साथ उसने आजादी की तमाम संभावनाओं कभी गला रेत दिया है।
अक्षरों के अक्षारता पर उसने स्याही उड़ेल कर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। सत्ता को सबसे बड़ा डर इन अक्षरों से है। इसलिए उसने अपने अखबार और छापेखाने बनवाए हैं। सयाहियों की फैक्टरियां बनवाई। जो उन नन्हे विद्रोही शब्दों पर तेज़ाब की तरह उड़ेली जाती हैं जिनसे सत्ता की मंसूबों के अधूरे रह जाने का खतरा होता है।
मगर कोमल सपनों का आना जारी है।मई जून की दोपहरी में जली दूब का सावन में पनपना जारी है। ये वो सपने है जिनके नसीब में सत्ता की सलीबें आती हैं। सत्ता से टकराने को ठोस विचारों का तय होना जारी है और साथ ही जारी है एक मुठभेड़ जो शिकार और शिकारी का,बहेलिये के हाथ से छूटने को छटपटाते नन्हीं चोंच का,सत्ता के बघनखों में फंसे आजादी के गानों का।
........अरमान आनंद

कविता
मुठभेड़

तुमने पत्थर उठाया

दे मारा नवजात गिलहरी को

पेड़ की छाल में बदल गया वह

तुमने एड़ियों से रगड़ दी पगडंडी

चुपचाप गायब हो गयी दिशाएं

उड़ेल दी स्याही पृष्ठों पर

मर गए सारे के सारे अक्षर

मैंने देखे हैं पृथ्वी के वास्ते कोमल सपने

चिन्हित किये हैं ठोस विचार

उन्हें टांग दिए हैं सलीब पर तुमने

जो आज तक मुठभेड़ कर रहे हैं जीवित

तुम्हारे खिलाफ।

........रामाज्ञा शशिधर

Sunday, 14 April 2013

मेरे शेर

1.मेरी आवारगी ने मुझको दीवाना बना दिया
    मैं तेरा न हुआ तो मैं मेरा भी ना हुआ।

2.हमें भी कुछ ऐसे जंग की है आरजू
    आमना सामना भी हो और दरम्याँ कुछ भी ना हो।

3.खिड़की खोलते ही आँखें पथरा गयीं
    शायद जंगले के उस पार किसी का चेहरा सूना हो गया होगा

4.याद आती है जिंदादिली उस बचपने की
जवान करके शायद किसी ने अधमरा सा कर दिया

5. तेरे हर सवाल का जवाब कोरा कागज है अरमान
      मेरे इश्क की किताब हर्फों की मोहताज नहीं ....

6.
मेरे गाँव की एक नदी जो मेरे प्यार में प्यासी बैठी है
उसी के किनारों पे कहीं मेरी उदासी बैठी है। अरमान

7.गर नींद आ जाये तो सो भी लोया करो
रात भर जागने से मुहब्बत लौटा नहीं करती...

इंतज़ार

वो हर जगह

जहाँ से गुज़र चुकी हो तुम

जिसका साथ छोड़ चुकी हैं

तुम्हारी खुशबुएँ /तुम्हारी यादें

मिट चुके हैं जहाँ से निशां तुम्हारे

शायद अब वहां

इंतज़ार भी नहीं किसी को

तुम्हारा.....।

नयी शाखें नयी पत्तियां

नयी कोयल नयी बुलबुल

ये कोई नहीं जानता

कभी तुम गुनगुनाती थी यहाँ

सब खुश हैं

इस बहती नयी बयार में

शायद तुम भी अपने नए नीड़ में

चहक रही होगी।

सबकुछ सामान्य से भी

बेहतर होने के बाद

कुछ कमी सी है।

क्यों लगता है कि

बाग़ के हरे भरे पेड़ों के बीच

बहुत हद तक छुपा हुआ वह ठूंठ

चाह कर भी अपनी मौजूदगी छुपा नहीं पाता।

हवाओं में फैली बेइंतेहा खुशबुएँ हैं

मगर किसी एक की चाह में

वो थम सी जाती हैं

क्यूँ सुबह सुबह सैकड़ों फूलों के खिलने पर

बूढा माली मुस्कुरते हुए

सर झुका कर सोचा करता है कुछ।

फिर कंधे से गमछा और आँखों से धुंधला गया सा चश्मा उतार कर

पोछा करता है

कभी आँखें कभी चश्मा

दूर तक फैले ये मखमली घास

बहुत बारिश के बाद भी

कहीं कहीं इस इंतज़ार में सूखे से हैं

की माहवर लगे पाँव से छू कोई जिन्दा कर दे इन्हें

मदमस्त घुमती फिज़ा भी

क्यूँ सन्न हो जाती है कभी कभी

और हर रोज़ जरूर आता है इक लड़का

बूढ़े बहरे माली को

घंटों समझाने

बाबा....

उसने कहा था

मैं जरुर आउंगी.....।

*********अरमान**************

Thursday, 11 April 2013

बारिश


तरो-तूफ़ान का दौर है
खिड़की के बाहर कुछ शाखें अंगडाइया ले रही हैं
हवाएं सांकल बजा बजा कर बुलाती हैं
शायद कोई संदेशा लायी होंगी।
पता नहीं क्यों
हर साल बारिश के इस मौसम में
मेरे तकिये का एक कोना
भींग जाता है।
..................अरमान

Sunday, 7 April 2013

पहेली

मुझे तृष्णा हुई

मैं प्यासा था

मैंने प्रेम कहा

मिली देह

झिंझोड़ा उलट पलट कर देखा

मिला आनंद

गोंता लगाना ही चाहता हूँ

अचानक

दिखती है बिस्तर पर पड़ी वितृष्णा

आकंठ प्यास में डूब जाता हूँ मैं

नेपथ्य में

कहीं बज रहा है रडियो

जिन्दगी .....

कैसी है पहेली हाय...

&&&&&अरमान&&&&&&

गांधीवाद -अरमान आनंद

गाँधी

तुमने कहा था

बुरा मत देखो

बुरा मत सुनो

बुरा मत बोलो

तुम्हें जान कर ख़ुशी होगी

आज हमसब

गांधीवादी हो चुके हैं।

कितना भी बुरा हो

सामने पीछे इर्द-गिर्द

हम अनदेखा कर देते हैं।

मूल्यों की टूटती तारों से

झंकारती चीत्कारें

हम अनसुना कर देते हैं।

हमारा यही अनदेखा-अनसुनापन

लग जाता है-खुद हमारी

जुबान पर ताला।

ना सुनता है कोई ना देखता है

हम स्वतः हो जाते हैं गांधीवादी।

गाँधी

तुम्हारा सबसे बड़ा अनुयायी था

गोडसे

ग से गांधी

ग से गोडसे

आश्चर्य मत करो

देखो

वह नहीं चाहता था

की विभाजन के बाद

और ज्यादा

और ज्यादा

कुछ भी    ...तुम

बुरा देखो

बुरा सुनो

बुरा बोलो

अब

सब अच्छा है।
.............हे राम।

*******अरमान********

प्रेम कविता 4

ये

मेरा ह्रदय है

साफ़ शीशे की तरह

तलब हो तोड़ने की

तो बेशक तोड़ो

मगर

तुम्हारे हाथ में दस्ताने

पांव में चप्पल

और

सलामती की दुआ

तीनों

निहायत जरुरी हैं।

######अरमान#######

अरमान आनंद की प्रेम कविता ध्येय

ध्येय

लो तोड़ो

मेरा दिल तोड़ो

लो खेलो

मेरे दिल से खेलो

तुम्हें आनंद मिलता है

है ना

और मुझे सुकून

क्योंकि

तुम्हारी ख़ुशी ही

ध्येय है मेरा

मेरे प्रेम का।
********अरमान********

Friday, 22 March 2013

अरमान आनंद की कविता नए दौर की क्रांति

आज दोपहर अपने गांव में
घर की देहरी पर
यूँ ही खाली खाली सा उंकडू  बैठा था मैं
अचानक याद आया
इस दफे दिल्ली में मैंने
कई प्रगतिशील अप्सराएँ देखी थीं
जो अपने ब्रांडेड जूतियों से रौंद देना चाहती थीं
नए दौर के साम्राज्यवादियों को।
लेक्मे से रँगे नाखूनों से
नोंच देना चाहती थीं भ्रष्टाचार की जड़ें
ब्लैक बेरी मैसेंजर और फेसबुक से
कर रही थीं
क्रांति का आह्वान
अब मैं
सरक कर खटिये पर आ लेता हूँ
सोचना जारी है
और खटिये की चरमराहट के बीच
औंधा सा लेट
सर को खुजाता हुआ सोच रहा हूँ
ससुरा मार्क्स ने
ई क्रांति के बारे में किस पेज में लिक्खा था।
&&&&&&&&*अरमान*&&&&&&&&&&

Thursday, 21 March 2013

आजादी

आज

एक चिड़िया ने

मार दी है सोने की कटोरी को लात

लहूलुहान चोंच से तोडा है चांदी का पिंजरा

और लगा दी है छलांग

अंतहीन में

मालिक नाम का जीव

सर धुनते हुए खोज रहा है

बन्दूक

प्रेम कविता 3

आधी रात को

जब मैं

टटोलता हूँ तुम्हें

या फिर

मेरा विश्वास

मेरी उंगलियों  को  पाँव बना

ढूंढता है तुम्हे

मेरे पास मेरे बिस्तरे पर

मगर तुम वहां नहीं मिलती

मैं हड़बडाया सा उठता हूँ

उठ बैठता हूँ

फिर पागलों की तरह

नोचना चाहता हूँ।

खुद को या बिस्तरे को

मगर मैं

ऐसा नहीं कर सकता

शायद मेरे पढ़े लिखे होने की टीस

मुझे ऐसा करने नहीं देती

मैं मुस्कुराता हूँ

अपनी भूल पर

और सोचता हूँ क्या तुमने

क्या तुमने कभी महसूस किया होगा

इस बेचैनी को

इस छटपटाहट को

हंसी आती है अब

खुद पर

की मैं यह कैसे भूल सकता हूँ की

तुम्हें क्यों याद रहे कुछ भी

तुम्हें तो घेरे होंगीं

किसी की बाहें

कुछ देर पहले ही तो

काफी कमर तोड़ मेहनत के बाद

उसके सीने के जंगल में

नाक घुसाए

तुम हमेशा की तरह

सो रही होगी

और मेरा प्यार

कहीं रिस रहा होगा।

ख्वाबों के उन ****---अरमान

ख्वाबों के उन महंगे हो चुके

पहले बुनने के

सोचना पड़ता है

जोड़ना पड़ता है

हजार दफ़े

मापनी होती है

मोटाई पॉकेट की।
****************---अरमान

इच्छाएं (2)

ढो रहा हूँ आज मैं

अपने मरे हुए जज्बात की लाश

ऐसा नहीं  की

मुझे उम्मीद हो

इसके जिन्दा हो जाने की

नहीं, बिलकुल नहीं

ये लाश अब सड रही है।

इसकी सड़ांध

एहसास दिलाती है।

मेरे अन्दर की

बची खुची इंसानियत का

महसूस कर रहा हूँ

एक दर्द

भावनाओं के मृत हो जाने की टीस

संवेदनात्मक अपंगता की चुभन

फिर जी करता है

करूँ रूद्र तांडव

सती-सी

मेरे शरीर से लिपटी

मेरी भावनाएं

लिथर बिखर कर

व्याप्त हो जाएँ

सगर संसार में....

*******अरमान*********

अरमान आनंद की कविता काश

तुम

एक गिरी हुई गाछ

तुम पर चढ़े हुए

सहलाते लिपटते हुए

और जोर जोर से हुमंचते हुए

कुछ बच्चे

और

अपनी बालकनी में

खड़ा मैं

अपनी टांगों को आपस में उलझाकर

सोचता हूँ

काश!

तुम

मेरे हाते में गिरी होती।

******@अरमान@*****

प्यार - अरमान

प्यार

उस मासूम बच्चे की तरह है।

जो

शादी से पहले

पैदा हो जाया करता  है।

और

शादी के बाद

पैदा किया जाता है।

********%अरमान%******

सलीब की औरत -अरमान

†सलीब की  औरत†
*****************
सलीब पर चढ़कर
एक पुरुष
ईशा बन जाता है।
और
औरतों में  टांक दी गयीं
न जानें
कितनी सलीबें
गुमनाम रह गयीं।
********&अरमान&*******

प्रेम कविता 2 -अरमान

****हिंसा****

लबों से पिसते लब

टकराती हुई नाक

गर्म साँसें

हवाओं में फैली सिस्कारियां

तुम्हारे ब्रा के हुक सुलझाने में उलझे मेरे हाथ

फंसी हुई टांगें

जी चाहता है

फाड़ कर छाती तुम्हारी

समा जाऊं तुझमें

मगर आम लोग इसे हिंसा कहते हैं।

******अरमान*******

पसंद (कविता) -अरमान

अगर तुम

मुझ पर पुरुषवादी होने का संदेह ना करो

तो सच कहता हूँ

मुझे

बहुत अच्छी लगती हैं

तुम्हारी

आंसुओं भरी आँखें

*******अरमान********

अरमान आनंद की प्रेम कविता दंभ

हाय

मैं प्रेम में तुम्हारा ह्रदय जीत

रोज हरता रहता हूँ

रोज

टूटता है

दंभ

की प्रेम में

मेरा पलड़ा भारी है।

******अरमान***********

Wednesday, 20 March 2013

अरमान आनंद की कविता बटन


घर से
बाहर की तरफ जाते हुए
मैंने जाना की टूटी है मेरे शर्ट की बटन
लौटा देहरी में
शर्ट पर दौड़ रही थीं
उँगलियाँ
और उँगलियों में नाच रही थी सुई
मेरे सीने के जंगल में गुम हो रही थीं
तुम्हारी गर्म सांसे
तुम्हारे लबों की थिरकन पे ठहरी थी
मुस्कान
तभी अचानक
याद आता है
कल रात
ये बटन
तूने ही तो तोडा था।
--------- अरमान

अरमान आनंद की कविता जुर्माना

(जुर्माना)

तुम मुझे
जब गौर से देखोगे
मेरे होठों पर मिलेंगे
मेरे माशूका के दांत
मेरी पीठ पर मेरी बीबी के नाख़ून
झुके हुए कन्धों पर टंगा हुआ दफ्तर
मेरी ऊँगली क काले धब्बों पर
चुनी हुई सरकार
और नीचे से
ठोंक दिया गया है मेरा संस्कार
मैं
हर रोज
आदमी होने का
जुर्माना भरता हूँ।
********अरमान*********

राजनीति --अरमान

मेरी

महत्वपूर्ण होने की मह्त्वाकांक्षा

और

उत्कृष्ट हो जाने की ललक पर

जब तुमने मुझे

कंधे पर उठाना स्वीकार नहीं किया

तो तुम्हारे सीने पर लात रख

मैंने कोशिश की है

मनचाहा पाने की

लोग इसे विरोध की राजनीति कहते हैं।
********     अरमान        *********

अहं ब्रह्मास्मि (कविता) ---अरमान

अहं ब्रह्म अस्मि(कविता)
मैं स्त्री
वहां तुमने या तुम्हारे पुरखों ने
क्या लिखा
मुझे इससे नहीं कोई सरोकार
तुम्हारा ऊपर वाला
ना मुझे रोटी देता है
ना रोजगार मुझे नहीं मतलब
कि
दुनिया परिणाम है
ईश्वरीय दया का
या किसी धमाके अथवा विध्वंश का
मुझे बस पता है
कि मैंने महीनो सेया है
अपने गर्भ में
ब्रह्माण्ड
और फाड़ कर अपना शरीर
जना है
विश्व
..............................अरमान

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व्याकरण कविता अरमान आंनद

व्याकरण भाषा का हो या समाज का  व्याकरण सिर्फ हिंसा सिखाता है व्याकरण पर चलने वाले लोग सैनिक का दिमाग रखते हैं प्रश्न करना  जिनके अधिकार क्षे...