Sunday, 8 October 2017

चिड़िया की आँख- शशि कुमार सिंह

चिड़िया की आँख

''अर्जुन तुम्हें चिड़िया की आँख दिख रही है?''
''हाँ गुरुजी दिख रही है.''
''और कुछ दिख रहा है?''
''ना गुरुजी.आपने कहा कि चिड़िया की आँख देखनी है तो बस मुझे चिड़िया की आँख ही दिख रही है.''
''बहुत खूब.मेरा आशीर्वाद है.बहुत आगे जाओगे.''
''धन्यवाद गुरुजी.''
''दुर्योधन तुम आओ.तुम्हें क्या दिख रहा है?''
''गुरुजी मुझे पेड़, डाली, पत्ते, फल, चिड़िया,घोंसले और आप लोग.सब कुछ दिख रहा है.''
''आँख नहीं दिख रही है?''
''आँख बहुत छोटी है न गुरुजी.इसलिए नहीं दिख रही है.''
''अर्जुन इसको समझाओ.इसकी आँख में ही कुछ खराबी है.प्रश्न भी ठीक से नहीं समझ रहा है.''
''देख भाई दुर्योधन गुरुकुल की भी पार्टी लाइन होती है.गुरुजी जो सुनना चाहते हैं, वही बोलना चाहिए.उनकी हाँ में हाँ मिलाना चाहिए.आगे जाने का यही मूल मन्त्र है.''
''मगर भाई सचमुच मुझे पेड़, डाली,पत्ते, फल, चिड़िया,घोंसले और आप लोग, सब कुछ दिख रहा था.चिड़िया भी दिख रही थी.मगर उसकी आँख तो बहुत छोटी थी.''
''तुम्हें कैसे समझाऊँ, जैसे मान लो, राजा धृतराष्ट्र कहें कि हस्तिनापुर में विकास दिख रहा है कि नहीं, तो मैं कहूँगा 'नहीं'.तुम क्या कहोगे?''
''मैं कहूँगा पिताजी अगर आपको दिख रहा है तो मुझे भी दिख रहा है.मैं साफ़-साफ़ देख रहा हूँ, दूर तक विकास हुआ है.पूरा हस्तिनापुर खुशहाल है.कहीं कोई समस्या नहीं है.''
''मगर क्या यह सच है?''
''ना.''
''सब समझते हो फिर भी.''
''क्या?''
''लोकतंत्र का गूढ़ रहस्य समझते हो.''
''हाँ, अब तो मैं  गुरुकुल में आगे जाऊंगा ना?''
''अब कोई नहीं रोक सकता.''

शशि कुमार सिंह

Saturday, 7 October 2017

साम्प्रदायिकता और संस्कृति - प्रेमचंद

साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलने में शायद लज्जा आती है, इसलिए वह उस गधे की भाँति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल में जानवरों पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है। हिन्दू अपनी संस्कृति को कयामत तक सुरक्षित रखना चाहत है, मुसलमान अपनी संस्कृति को। दोनों ही अभी तक अपनी-अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं, यह भूल गये हैं कि अब न कहीं हिन्दू संस्कृति है, न मुस्लिम संस्कृति और न कोई अन्य संस्कृति। अब संसार में केवल एक संस्कृति है, और वह है आर्थिक संस्कृति मगर आज भी हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोये चले जाते हैं। हालाँकि संस्कृति का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं। आर्य संस्कृति है, ईरानी संस्कृति है, अरब संस्कृति है। हिन्दू मूर्तिपूजक हैं, तो क्या मुसलमान कब्रपूजक और स्थान पूजक नहीं है। ताजिये को शर्बत और शीरीनी कौन चढ़ाता है, मस्जिद को खुदा का घर कौन समझता है। अगर मुसलमानों में एक सम्प्रदाय ऐसा है, जो बड़े से बड़े पैगम्बरों के सामने सिर झुकाना भी कुफ्र समझता है, तो हिन्दुओं में भी एक ऐसा है जो देवताओं को पत्थर के टुकड़े और नदियों को पानी की धारा और धर्मग्रन्थों को गपोड़े समझता है। यहाँ तो हमें दोनों संस्कृतियों में कोई अन्तर नहीं दिखता।

तो क्या भाषा का अन्तर है? बिल्कुल नहीं। मुसलमान उर्दू को अपनी मिल्ली भाषा कह लें, मगर मद्रासी मुसलमान के लिए उर्दू वैसी ही अपरिचित वस्तु है जैसे मद्रासी हिन्दू के लिए संस्कृत। हिन्दू या मुसलमान जिस प्रान्त में रहते हैं सर्वसाधारण की भाषा बोलते हैं चाहे वह उर्दू हो या हिन्दी, बंग्ला हो या मराठी। बंगाली मुसलमान उसी तरह उर्दू नहीं बोल सकता और न समझ सकता है, जिस तरह बंगाली हिन्दू। दोनों एक ही भाषा बोलते हैं। सीमाप्रान्त का हिन्दू उसी तरह पश्तो बोलता है, जैसे वहाँ का मुसलमान।

फिर क्या पहनावे में अन्तर है? सीमाप्रान्त के हिन्दू और मुसलमान स्त्रियों की तरह कुरता और ओढ़नी पहनते-ओढ़ते हैं। हिन्दू पुरुष भी मुसलमानों की तरह कुलाह और पगड़ी बाँधता है। अक्सर दोनों ही दाढ़ी भी रखते हैं। बंगाल में जाइये, वहाँ हिन्दू और मुसलमान स्त्रियाँ दोनों ही साड़ी पहनती हैं, हिन्दू और मुसलमान पुरुष दोनों कुरता और धोती पहनते है तहमद की प्रथा बहुत हाल में चली है, जब से साम्प्रदायिकता ने ज़ोर पकड़ा है।

खान-पान को लीजिए। अगर मुसलमान मांस खाते हैं तो हिन्दू भी अस्सी फीसदी मांस खाते हैं। ऊँचे दरजे के हिन्दू भी शराब पीते हैं, ऊँचे दरजे के मुसलमान भी। नीचे दरजे के हिन्दू भी शराब पीते है नीचे दरजे के मुसलमान भी। मध्यवर्ग के हिन्दू या तो बहुत कम शराब पीते हैं, या भंग के गोले चढ़ाते हैं जिसका नेता हमारा पण्डा-पुजारी क्लास है। मध्यवर्ग के मुसलमान भी बहुत कम शराब पीते है, हाँ कुछ लोग अफीम की पीनक अवश्य लेते हैं, मगर इस पीनकबाजी में हिन्दू भाई मुसलमानों से पीछे नहीं है। हाँ, मुसलमान गाय की कुर्बानी करते हैं। और उनका मांस खाते हैं लेकिन हिन्दुओं में भी ऐसी जातियाँ मौजूद हैं, जो गाय का मांस खाती हैं यहाँ तक कि मृतक मांस भी नहीं छोड़तीं, हालांकि बधिक और मृतक मांस में विशेष अन्तर नहीं है। संसार में हिन्दू ही एक जाति है, जो गो-मांस को अखाद्य या अपवित्र समझती है। तो क्या इसलिए हिन्दुओं को समस्त विश्व से धर्म-संग्राम छेड़ देना चाहिए?

संगीत और चित्रकला भी संस्कृति का एक अंग है, लेकिन यहाँ भी हम कोई सांस्कृतिक भेद नहीं पाते। वही राग-रागनियाँ दोनों गाते हैं और मुगलकाल की चित्रकला से भी हम परिचित हैं। नाट्य कला पहले मुसलमानों में न रही हो, लेकिन आज इस सींगे में भी हम मुसलमान को उसी तरह पाते हैं जैसे हिन्दुओं को।

फिर हमारी समझ में नहीं आता कि वह कौन सी संस्कृति है, जिसकी रक्षा के लिए साम्प्रदायिकता इतना ज़ोर बाँध रही है। वास्तव में संस्कृति की पुकार केवल ढोंग है, निरा पाखण्ड। शीतल छाया में बैठे विहार करते हैं। यह सीधे-सादे आदमियों को साम्प्रदायिकता की ओर घसीट लाने का केवल एक मन्त्र है और कुछ नहीं। हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति के रक्षक वही महानुभाव और वही समुदाय हैं, जिनको अपने ऊपर, अपने देशवासियों के ऊपर और सत्य के ऊपर कोई भरोसा नहीं, इसलिए अनन्त तक एक ऐसी शक्ति की ज़रूरत समझते हैं जो उनके झगड़ों में सरपंच का काम करती रहे।

इन संस्थाओं को जनता को सुख-दुख से कोई मतलब नहीं, उनके पास ऐसा कोई सामाजिक या राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है जिसे राष्ट्र के सामने रख सकें। उनका काम केवल एक-दूसरे का विरोध करके सरकार के सामने फरियाद करना है। वे ओहदों और रियायतों के लिए एक-दूसरे से चढ़ा-ऊपरी करके जनता पर शासन करने में शासक के सहायक बनने के सिवा और कुछ नहीं करते।

मुसलमान अगर शासकों का दामन पकड़कर कुछ रियायतें पा गया है तो हिन्दु क्यों न सरकार का दामन पकड़ें और क्यों न मुसलमानों की भाँति सुख़र्रू बन जायें। यही उनकी मनोवृत्ति है। कोई ऐसा काम सोच निकालना जिससे हिन्दू और मुसलमान दोनों एक राष्ट्र का उद्धार कर सकें, उनकी विचार शक्ति से बाहर है। दोनों ही साम्प्रदायिक संस्थाएँ मध्यवर्ग के धनिकों, ज़मींदारों, ओहदेदारों और पदलोलुपों की हैं। उनका कार्यक्षेत्र अपने समुदाय के लिए ऐसे अवसर प्राप्त करना है, जिससे वह जनता पर शासन कर सकें, जनता  पर आर्थिक और व्यावसायिक प्रभुत्व जमा सकें। साधारण जनता के सुख-दुख से उन्हें कोई प्रयोजन नहीं। अगर सरकार की किसी नीति से जनता को कुछ लाभ होने की आशा है और इन समुदायों को कुछ क्षति पहुँचने का भय है, तो वे तुरन्त उसका विरोध करने को तैयार हो जायेंगे। अगर और ज़्यादा गहराई तक जायें तो हमें इन संस्थाओं में अधिकांश ऐसे सज्जन मिलेंगे जिनका कोई न कोई निजी हित लगा हुआ है। और कुछ न सही तो हुक्काम के बंगलों पर उनकी रसोई ही सरल हो जाती है। एक विचित्र बात है कि इन सज्जनों की अफसरों की निगाह में बड़ी इज्जत है, इनकी वे बड़ी ख़ातिर करते हैं।

इसका कारण इसके सिवा और क्या है कि वे समझते हैं,  ऐसों पर ही उनका प्रभुत्व टिका हुआ है। आपस में खूब लड़े जाओ, खूब एक-दूसरे को नुकसान पहुँचाये जाओ। उनके पास फरियाद लिये जाओ, फिर उन्हें किसका नाम है, वे अमर हैं। मजा यह है कि बाजों ने यह पाखण्ड फैलाना भी शुरू कर दिया है कि हिन्दू अपने बूते पर स्वराज प्राप्त कर सकते है। इतिहास से उसके उदाहरण भी दिये  जाते हैं। इस तरह की गलतहमियाँ फैला कर इसके सिवा कि मुसलमानों में और ज़्यादा बदगुमानी फैले और कोई नतीजा नहीं निकल सकता। अगर कोई ज़माना था, तो कोई ऐसा काल भी था, जब हिन्दुओं के ज़माने में मुसलमानों ने अपना साम्राज्य स्थापित किया था, उन ज़मानों को भूल जाइये। वह मुबारक दिन होगा, जब हमारे शालाओं में इतिहास उठा दिया जायेगा। यह ज़माना साम्प्रदायिक अभ्युदय का नहीं है। यह आर्थिक युग है और आज वही नीति सफल होगी जिससे जनता अपनी आर्थिक समस्याओं को हल कर सके जिससे यह अन्धविश्वास, यह धर्म के नाम पर किया गया पाखण्ड, यह नीति के नाम पर ग़रीबों को दुहने की कृपा मिटाई जा सके। जनता को आज संस्कृतियों की रक्षा करने का न अवकाश है न ज़रूरत। ‘संस्कृति’ अमीरों, पेटभरों का बेफिक्रों का व्यसन है। दरिद्रों के लिए प्राणरक्षा ही सबसे बड़ी समस्या है।

उस संस्कृति में था ही क्या, जिसकी वे रक्षा करें। जब जनता मूर्छित थी तब उस पर धर्म और संस्कृति का मोह छाया हुआ था। ज्यों-ज्यों उसकी चेतना जागृत होती जाती है वह देखने लगी है कि यह संस्कृति केवल लुटेरों की संस्कृति थी जो, राजा बनकर, विद्वान बनकर, जगत सेठ बनकर जनता को लूटती थी। उसे आज अपने जीवन की रक्षा की ज़्यादा चिन्ता है, जो संस्कृति की रक्षा से कहीं आवश्यक है। उस पुरान संस्कृति में उसके लिए मोह का कोई कारण नहीं है। और साम्प्रदायिकता उसकी आर्थिक समस्याओं की तरफ से आँखें बन्द किये हुए ऐसे कार्यक्रम पर चल रही है, जिससे उसकी पराधीनता चिरस्थायी बनी रहेगी।

प्रेमचंद

Friday, 6 October 2017

सूक्ष्म अवलोकन और गहन चिंतन के कवि हैं अरमान आनन्द ! - मोहन कुमार झा

सूक्ष्म अवलोकन और गहन चिंतन के कवि हैं अरमान आनन्द !

( पढ़िये अरमान आनन्द जी की कविताओं पर मोहन कुमार झा का लेख)
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आधुनिक कविता की एक ख़ास , जरुरी और महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इन कविताओं का वर्ण्य विषय समाज में घटित होने वाली विभिन्न प्रकार की घटनाओं से जुड़ा होता है।
कवि अरमान आनन्द की कविताएं भी अपने समय और समाज के बीच से अपने निर्माण के तत्त्व ग्रहण करती हैं। उनकी कविताएं पढ़ते हुए जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य मेरे हाथ लगा वो ये कि अरमान आनन्द की कविताएं सूक्ष्म अवलोकन और गहन चिंतन की प्रकिया से गुजर कर आकार ग्रहण करती हैं। शायद यहीं कारण है कि उनके यहां ' जो जंग हम हार गए हैं ' , ' तानाशाह ' , ' बजरडीहा ' , ' आडवाणी : चौराहे पर खड़े गांधी हैं ' , ' जुर्माना ' , ' दंगे का फूल ' जैसी कविता हमें पढ़ने को मिलती हैं।
अपने पराजय के कारणों की पड़ताल करती है इनकी कविता ' जो जंग हम हार गए हैं ' । यह कविता हमारा ध्यान इस तरफ ले जाती है कि कौन सी जंग हम हार गए हैं और क्यों हार गए हैं ? ऐसा क्यों हो रहा है कि युद्धगान लिखने वाला भूखा मर रहा है और प्रशस्तिगान लिखने का कोई मतलब नहीं रहा। राजा राजा की तरह लड़ नहीं पा रहा है और आशिक माशूकों के द्वारा दुत्कारे जा रहे हैं ? कवि का संकेत कहीं न कहीं उस वर्ग की तरह है जिसे ' बीच का आदमी ' कहा जाता है। वर्तमान समय में ये बीच के लोग किस तरह आम आदमी का इस्तेमाल कर अपना स्वार्थ सिद्ध कर रहे हैं , कविता इस तरफ संकेत करती है। कवि जिस जंग के हारने की बात करते हैं वो आम आदमी का जंग है जिसे हम रोज हारते हुए लड़ रहे हैं।
' आडवाणी :चौराहे पर खड़े गांधी हैं ' कविता में देश के सर्वेसर्वा बनते बनते रह गए नेता के मजबूरी की तुलना चौराहे पर खड़े गांधी की प्रतिमा से की गई है। दरअसल कविता में आया आडवाणी और गांधी शब्द व्यक्तिवाचक के बदले जातिवाचक अर्थ दे रहे हैं। यहां आडवाणी और गांधी शब्द देश के उन तमाम नेताओ से बाबस्ता है जिनकी हालत निर्जिव मूर्तियों के समान हो गयी है। जिनके नाम पर सरकारें बनती और चलती हैं पर उनमें उनकी सक्रिय भागीदारी नहीं होती। भारत के जो मूल्यों थे , क्या आज उससे विचलन का दौर नहीं है ? गांधी का देश क्यों नक्सलवाद की आग में जल रहा है ? अवसरवाद और परिवारवाद की राजनीति की वजह से देश की दुर्गति हो रही है। ईमानदारों के लिए कहीं जगह नहीं बची है वे पत्थर की मूर्तियों के समान चौराहे पर खड़े हैं जिनपर कौवे-कबूतर बीट कर रहे हैं।कविता के आख़िर में कवि गांधी के बच्चे के लाठी बनने की बात कहता है अर्थात् जनता से सक्रिय प्रतिक्रिया की मांग करता है।आज देश की राजनीति युवा केन्दित है पर युवाओ की हालत सबसे अधिक खराब है।यह कविता हूकूमत के कथनी और करणी में मौजूद फासलें की और हमारा ध्यान खीचती है ।
असत्य पर सत्य की , अन्याय पर न्याय की , बुराई पर अच्छाई की , नफरत पर मोहब्बत की होने वाली जीत का यकीन दिलाती उनकी एक बेहद महत्वपूर्ण कविता है ' तानाशाह ' । सतही तौर पर देखने पर आप इसे एक राजनीतिक कविता समझ सकते हैं परन्तु यह केवल एक राजनीतिक कविता न होकर अपने में शाश्वत मूल्यों और सिद्धांतों को समेटे है।व्यक्ति ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना है परन्तु सदा से ही दुनिया में ऐसे लोग होते आये हैं जिन्होंने अपने कृत्यों से मानवता को शर्मशार किया है। ये अपने महात्वाकांक्षा और जिद के आगे मनुष्य और मनुष्यता की अहमियत को कुछ नहीं समझते। तानाशाह किसी की आवाज नहीं बनते बल्कि लोगों की आवाज को दबाते हैं।परन्तु एक कवि लोगों की आवाज बनता है। उनकी समस्याओं और भावनाओं को स्वर देता है। इसलिए निसंदेह कवि उस अंतिम आदमी को भी इंकलाब के लिए तैयार कर सकता है जिससे तानाशाह को सबसे अधिक खतरा है। लोकतांत्रिक समाज में तानाशाह का होना काफी ख़तरनाक होता है क्योंकि उसे लोकतंत्र पर भरोसा नहीं होता। उसके दिमाग में एक प्रकार का पागलपन सवार रहता है जिसकी वजह से वह सही और गलत की शिनाख़्त नहीं पाता। वह अपने मार्ग में आने वाली हर चीज को रौंदता चला जाता है। लेकिन समाज के बुद्धिजीवी वर्ग के पास सही और गलत के चयन की समझ होती है।ये अपने विचारों से समाज में लोकतात्रिक और मानवीय मूल्यों की स्थापना कर तानाशाह के मनसूबों को चूरचूर कर सकते हैं।ऐसे में यह कविता तानाशाही सोच के खिलाफ प्रगतिशील विचारों को मोर्चे पर आने का निमंत्रण देती है।
इस क्रम में अरमान आनन्द की एक और कविता ' बजरडीहा ' का जिक्र मैं जरुर करना चाहूंगा। यह बहुत ही ख़ास कविता है। ख़ास इस अर्थ में कि यह कविता बनारस शहर के बजरडीहा इलाके और वहां के बुनकरों की बदहाल जिन्दगी का सच बयां करती कविता है। बजरडीहा विश्व प्रसिद्ध बनारसी साड़ियों का केन्द्र है परन्तु वहा रहने वाले लोगों की समस्याएं देखने की फुर्सत किसी को नहीं है। तमाम मुश्किलों को झेलते हुए भी यहां के

मोहन
लोग दुनियां को अपने बेहतरीन हुनर और नायाब कारीगरी से कायल करते हैं। लेकिन कवि को इस बात का दुःख है कि देश-दुनिया में बनारस की पहचान बनाने वाला बनारस का यह बजरडीहा इलाका बनारस में ही बदहाल और गुमनाम है। और इसकी तरक्की की राह अभी तक कोसों दूर है।
कवि के लिए यह जरुरी है की उनके भीतर रचनाशीलता के प्रति ललक , समर्पण और उत्साह का भाव गहराई तक भरा हो। अरमान आनन्द को कविता पढ़ते हुए देख-सुनकर आप इसका अनुमान कर सकते है । आप जितनी शिद्दत से कविता लिखते हैं उतनी ही शिद्दत से काव्यपाठ भी करते हैं।
आप अभी रचनाकर्म में सक्रिय हैं । आपके भीतर जितनी कविताई है अभी उसका आधा भी हमारे सामने नहीं आया है। 
परन्तु फिर भी इसमें कोई संदेह नहीं है कि अरमान आनन्द हिन्दी कविता के स्थापित युवा कवि हैं।
                                                                       मेरा यह लेख उनकी चार चयनित कविताओं पर है जो मैंने उनके फेसबुक वाल पर पढ़ी। उनकी कविताओं पर लिखकर मैंने न चाहते हुए भी एक दु:साहस किया है। परन्तु अपने लेख में यदि मुझसे उनकी कविता की गहराई के एक भी सोपान तय हुए हों तो मैं अपना प्रयास सार्थक समझूंगा ।

                                                                                                                                           

पाश की कविता ' सबसे खतरनाक ' पर केन्द्रित मोहन कुमार झा की समीक्षा


(पढ़िये पाश और उनकी कविता '
सबसे खतरनाक ' पर केन्द्रित मेरा लेख )
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क्या आपने कभी यह बात सोची है कि एक कविता क्या-क्या कर सकती है ? क्या-क्या हो सकती है ? अगर नहीं तो आप अवतार सिंह संधू यानी कवि ' पाश ' की कविता ' सबसे ख़तरनाक ' जरुर पढ़ लें । इस कविता को ठीक से पढ़ने के बाद ये हो सकता है कि आप इस तरह की कविताओं को खोज-खोज के पढ़ने के मरीज़ हो जाए। ये भी हो सकता है कि आपके रगों में बहता खून बहुत तेजी से दौड़ने लगे। और ये भी हो सकता है कि आप वो न रह जाए जो आप पहले थें। यह कविता अन्यायी और मतलबी हुकूमतों के लिए किसी बुरे सपने से कम नहीं है।यह कविता एक ऐसी दवाई है जिसे पीकर मुर्दा जनता के भीतर क्रांति के लिए आगे बढ़ने का हौसला पैदा होता है।आप यकीन करें न करें यह एक ऐसी कविता है जिससे हुकूमतें डरती हैं। 
इस कविता को समझने के लिए दो बातों का जरुर ध्यान रखना चाहिए । पहला कि कवि के लिए क्या गलत है और क्या खतरनाक।सदियों से आदमी के द्वारा आदमी को लूटा जा रहा है। सदियों से हक की मांग करने वालों को बेरहमी से मारा जाता रहा है। सदियों से चालाक लोगों द्वारा किसी शातिर शिकारी की तरह व्यवस्था , नियम -कानून आदि का जाल फैला कर निरीह और बेबस लोगो का शिकार किया जाता रहा है। और उन्हें आगे बढ़ने से रोका जाता रहा है।पर कवि इनकों गलत तो कहता है पर खतरनाक नहीं कहता। तो फिर ख़तरनाक क्या है ? कवि के नजर में ख़तरनाक है आदमी के भीतर अन्याय से लड़ने की इच्छाशक्ति का अभाव। खतरनाक है दिल में तड़प का न होना । खतरनाक है सबकुछ चुपचाप सहना , खतरनाक है जरुरी समय पर किसी जरुरी प्रतिक्रिया का न होना। खतरनाक़ है चुनौती से लड़ने के मुकाबिल उसकी अनदेखी करना ।सबसे खतरनाक है बेहतर कल का कोई सपना न होना। 
कवि को भविष्यद्रष्टा कहा जाता है। पाश ऐसे ही भविष्यद्रष्टा कवि हैं।इस बात का प्रमाण इसी कविता के अंतिम आधे हिस्से में मिल जाता है।क्या आज हमारा समाज अति असंवेदनशील नहीं हो गया है ? क्या आज हमारे समाज में आपसी प्रेम और भाईचारे की ऐसी स्थिति है जिसपर हम-आप संतोष कर सकें ? आख़िर क्यों स्त्री को शक्ति और देवी मानने वाले भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति आज भी सर्वोत्तम नहीं कही जा सकती ?
दरअसल् हमने लड़े बिना ही हार मान ली है। पश्चिम का प्रभाव सड़क से लेकर संसद तक जबरदस्त छाप छोड़ चुका है और इसकी वज़ह से समाज से लेकर सियासत तक की चलने के तौर -तरीके बदल गए है।परन्तु समाज व्यक्ति से बनता है और व्यक्ति से ही चलता है। इसलिए जिस दौर में समाज की आबादी का एक बड़ा भाग पथ भूल गया हो , एक कवि की चुनौती यहीं से शुरु होती है कि वह राह भूलें समाज को मार्ग पर लाने का प्रयास करे। और पाश इस कविता में यह कार्य करने का प्रयास करते हैं। पाश पंजाब के क्रांतिकारी कवि थे। उन्होंने अलग खालिस्तानी आन्दोलन को बहुत करीब से देखा और समझा था।लोग मारे जा रहे थे।
हुकूमत सत्ता के नशे में चूर आन्दोलन को कुचलने पर लगी थी। आम आदमी रोटी के इंतज़ाम में इस कदर पस्त था कि उसे इन सब बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता था। ऐसे कठिन दौर में जलते हुए पूजाब की आत्मा को बचाने का संकल्प लिये यह कवि हमसे यह कहता है कि जब जुर्म और अन्याय देखकर आपकी आंखों में मिर्ची न लगे और आप एक मुर्दा खामोशी ओढ़े रहें तो यह समझ लेना चाहिए कि आपकी आत्मा मर गई है।पाश की यह कविता जिन्दगी में लागातार दोहराव की प्रक्रिया से अलग सजग आत्मा के साथ अग्रसर होने के लिए प्रेरित करती है। 
पाश को क्रांति का कवि कहा जाता है।बहुत से लोग पाश को एक ख़ास विचारधारा से जोड़कर देखते हैं जोकि मेरे विचार से ठीक नहीं है।वास्तविकता यह है कि पाश स्पष्टता और बेबाकीपन के कवि हैं। चाहे उनकी कविता हो या निजी जिन्दगी पाश ने जो भी किया , जो भी लिखा , पूरी स्पष्टता , खुलापन और बेबाकी से किया और लिखा। उस वक्त पाश के आसपास जिस तरह की घटनाएं घटित हो रहीं थी उसमें प्रेम गीत गाने की न तो कोई जरुरत थी और न ही उसका कोई महत्व ही था। समस्याग्रस्त पंजाब अपनी समस्या बताने, समाधान के लिए नये मार्ग तलाशने और उत्साह पैदा करने वाले शब्दों को पढ़ने-सुनने के लिए व्याकुल था। और पाश की कविताएं इस आवश्यकता की पूर्ति करती हैं।
यह एक संयोग है कि पाश की मृत्यु उसी तारीख को हुई जिस तारीख को भगत सिंह की।पाश कि कविताओं का मिजाज बहुत कुछ भगत सिंह के विचारों से मिलता है। और वो यह है कि मरने से पहले मरना मनुष्य होने की निशानी नहीं है। अंतिम सांस तक बेहतर कल के सपने को साकार करने के लिए जुर्म और अन्याय के ख़िलाफ़ संघर्ष करना ही हमारे ज़िन्दा होने की पहचान है।शायद इसी अर्थ में डा. नामवर सिंह जी ने पाश को " शापित कवि " कहा है। सच है कि पाश एक शापित कवि थे और वो छोटी उम्र मिलने के बावजूद जिन्दगी भर अन्याय के विरुद्ध संधर्ष के गीत 
गाने के लिए अभिशप्त थे।

पाश को बहुत कम उम्र मिली थी। वे कुल 38 वर्ष ही जीवित रहे।हिन्दी के एक और आधुनिक कवि सुदामा पाण्डेय ' धूमिल ' को भी बहुत कम उम्र मिली थी।धूमिल का निधन भी 39 वर्ष की ही अवस्था में हो गया।मगर पाश और धूमिल की कविताओं की उम्र बहुत लम्बी है , इसमें कोई शक नहीं । इन दोनों कवियों की कविताएं सरल शब्दों में अपने समय की धड़कन को बयां करती हैं।पटकथा धूमिल की अक्षयकीर्ति का मूल है तो ' सबसे ख़तरनाक ' पाश की प्रसिद्धि का आधार।इनमे से किसी एक की कविताएं पढ़ने पर दूसरा खुद-ब-खुद हमारे जेहन में उपस्थित हो जाता है।
धूमिल के समान पाश के यहां भी कुछ शब्दों और उपमाओं पर आपत्ति दर्ज की जा सकती है।पर मुकम्मल नज़रिये से देखने पर पता चलेगा कि पाश के यहां ऐसे अवसर बहुत ही कम हैं। पाश को पढ़ने वालों और पसंद करने वालों में युवाओं की संख्या सर्वाधिक है।पाश की कविता ' सबसे खतरनाक ' की एक ख़ास विशेषता यह है कि यह कविता पाठक के भीतर एक धीमी और लम्बी परिवर्तन की प्रक्रिया आरंभ कर देती है , जो अन्ततः अन्याय के विरुद्ध सक्रिय संधर्ष के रुप में परिणत होती है।शायद यहीं वज़ह है कि ज्यादातर हुकूमतें इस एक कविता के सामने खुद को असहज महसूस करतीं हैं।

सबसे ख़तरनाक -पाश
मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता
कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
जुगनुओं की लौ में पढ़ना
मुट्ठियां भींचकर बस वक्‍़त निकाल लेना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता

सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी नज़र में रुकी होती है

सबसे ख़तरनाक वो आंख होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्‍बत से चूमना भूल जाती है
और जो एक घटिया दोहराव के क्रम में खो जाती है
सबसे ख़तरनाक वो गीत होता है
जो मरसिए की तरह पढ़ा जाता है
आतंकित लोगों के दरवाज़ों पर
गुंडों की तरह अकड़ता है
सबसे ख़तरनाक वो चांद होता है
जो हर हत्‍याकांड के बाद
वीरान हुए आंगन में चढ़ता है
लेकिन आपकी आंखों में
मिर्चों की तरह नहीं पड़ता

सबसे ख़तरनाक वो दिशा होती है
जिसमें आत्‍मा का सूरज डूब जाए
और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्‍म के पूरब में चुभ जाए

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती ।

मदरसा डे शशि कुमार सिंह

मदरसा डे

''बताइये हमारे यू.पी.में एक दिन बैग फ्री डे मन रहा है.इसके विरोध में हमारे विरोधी आज मदरसा डे मना रहे हैं.''
''माफी चाहूंगा सर.''
''हाँ माफ़ किया बोलो.''
''सर ये मस्जिद वाला मदरसा डे नहीं है.आज अंग्रेज़ी वाला मदर्स डे है.''
''अच्छा अच्छा.बताना चाहिए था न.ये नागपुर वाले गुरूजी फोन कर मुझे डांट रहे थे.उनको अंग्रेज़ी तो आती नहीं.जानना-समझना तो कुछ है नहीं.बस मुझे डांटते रहते हैं.बस डांट लो दो साल और.''

कर्मठता - शशि कुमार सिंह

कर्मठता

''भारतीय जनता से किये गए सारे वादे पूरे हो गए.पर मेरा कर्मठ मन अभी भी कुछ करने को बेताब है.क्या करूं प्रभु मेरा मार्गदर्शन करो.''
''हे भक्त तुम्हारा जन्म सिर्फ भारत भूमि का कष्ट हरने के लिए नहीं हुआ था.यहाँ तो शत-प्रतिशत तुमने अपना वादा निभा दिया.''
''फिर क्या करूं प्रभु?मैं कर्म के अभाव में मृत हो जाऊँगा.मुझे अविलम्ब कुछ करना है.मेरे हाथ पैर कर्म के अभाव में काँप रहे हैं.''
''भक्त तुम श्रीलंका जाओ और वहाँ 10 हज़ार मकान बनाओ क्योंकि अच्छे मकान के अभाव में सीताजी को अशोक वाटिका में रहना पड़ा था.यही तुम्हारी मेरे प्रति सच्ची भक्ति होगी.''
''जो आज्ञा प्रभु.''
''तथास्तु.''

राष्ट्र ऋषि सिंघल द्वीप में - शशि कुमार सिंह

राष्ट्र ऋषि सिंघल द्वीप में

''मेरे प्यारे श्रीलंकाई भाइयो और बहनो ! इस बार आपकी धरती पर कोई राजनेता नहीं आया है बल्कि एक राष्ट्र ऋषि आया है.राष्ट्र ऋषि की दीक्षा के उपरांत मैंने विदेश यात्रा के लिए श्रीलंका को चुना.यह  दोनों देशों के रिश्तों की मजबूती का परिचायक है.भाइयो और बहनो बौद्ध धर्म से मेरा पुराना रिश्ता रहा है.सही बात तो यह है कि मैं भी बौद्ध धर्म में ही पैदा होना चाहता था.मगर अफ़सोस की बात नहीं है.मैं जन्मना नहीं धर्मना बौद्ध हूँ.आप जानते हैं कि भारत एक ऐसा देश है जहां धर्मों की गिनती करते हैं तो समूह में ही करते हैं.इस तरह धर्मों को याद करने में भी आसानी रहती है.हम बोलते हैं हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई.ये चारों एक साथ आते हैं.इसके बाद जैन और बौद्ध धर्म एक साथ.आप जानते हैं कि विश्व के सबसे बड़े राजनीतिक दल के अध्यक्ष जैन हैं.उनके साथ रहता कौन है?आपका राष्ट्रऋषि.एक जैन के साथ रहने वाला बौद्ध हुआ ना क्योंकि दोनों धर्मों की काउंटिंग एक साथ होती है.
आप मेजबान हैं.मैं मेहमान हूँ.दुनिया के कई देशों की यात्रा मैंने की, मगर इतना अपनापन मुझे कहीं नहीं मिला.कार्यक्रम के संचालक ने जब राष्ट्रऋषि के साथ मुझे संबोधित किया तो समझ लीजिये कि मेरा रोवां-रोवां भरभरा गया.मैं भोजपुरी इलाके से सांसद हूँ न इसलिए थोड़े भोजपुरी के शब्द आ जाते हैं.मैं एक बात मजाक में ही कह रहा हूँ आपके रावण ने हमारे देश की महिला का किडनैप किया.इतना लुच्चा आदमी कहीं देखा है आपने?यह लव जिहाद ही तो था.मगर आज हम इतने सक्षम हैं कि लव जिहाद करने की रावण की हिम्मत  न पड़ती.आज आर.एस.एस., विश्व होन्दू परिषद् ,आदित्यनाथ जी की हिन्दू युवा वाहिनी के सदस्य आपको बताते कि लव जिहाद वास्तव में होता क्या है?सारी लुच्चई भूल जाती.वैसे हमारे आर.एस.एस.ने गर्भ में ही बच्चे को सुसंस्कृत करने की सराहनीय पहल की है.हमारे यहाँ एक प्रदेश में, अरे उसी प्रदेश में जहां से मैं सांसद हूँ और जो राम की भी जन्मभूमि है, हाँ तो वहाँ हमने रामराज्य लाने की प्रयोगशाला या कार्ययोजना के तहत एंटी रोमियो स्क्वाड चालू किया है.अब किसी लुच्चे की हिम्मत नहीं पड़ती.मगर आपके यहाँ तो एंटी जूलियट स्क्वाड चालू करना होगा क्योंकि यहाँ उलटे शूर्पनखा जैसी लड़कियां ही छेड़ती हैं.
भाइयो और बहनो आप लोग बुरा तो नहीं मान रहे हैं न ?अरे ऋषियों  के कडवे प्रवचन लाभदायक होते हैं.रावण के लोग ऐसे ही लोगों को पकड़कर खा जाते थे.यह पूरा श्रीलंका चलता फिरता स्लोटर हाउस ही तो है.मगर अब ऐसे नहीं चलेगा.अब भारत के पड़ोस में ऐसा नहीं चलेगा.अब सभी को लाइसेंस लेने होंगे.यहाँ के सभी पशुओं का विशेष रूप से गोमाता का आधार कार्ड बनेगा.और हम इस मामले में आपकी पूरी मदद करेंगे.हम अपने यहाँ भी यह योजना लागू कर रहे हैं.
रावण के दूसरे राजनीतिक दलों के साथ संबंधों की जांच होगी.जरूर उसका सम्बन्ध कांग्रेस से था.नहीं तो इतनी बड़ी सोने की लंका.असंभव है.
भाइयों और बहनो मेरा तो हिंसा में कतई विश्वास नहीं है.कभी था भी नहीं.जो कुछ बात आप लोगों के कानों तक पहुँची होगी, वह सब विपक्ष और विपक्षी मीडिया की वजह से.इस पाप भूमि में हमारे यहाँ से हनुमानजी आये थे.क्या किया था याद है न?पूरी लंका को तहस-नहस कर दिया था.मैं भी कर सकता हूँ क्योंकि मेरे भक्त भी मुझे हनुमान से कम नहीं मानते.मगर मैंने कहा न मेरा हिंसा में कतई विश्वास नहीं है.सहारनपुर से कुछ ख़बरें आ रही थीं.हमने निंदा की.मन थोड़ा घूमने का हुआ तो मैं आ गया भगवन बुद्ध की शरण में.वैसे बुद्धं शरणम गच्छामि वाले लोग मुझे बहुत पसंद हैं.अम्बेडकरजी से हम कितना प्रेम करते हैं, यह बताने की जरूरत नहीं है.हम चाहते हैं कि हमारी पार्टी की शाखा यहाँ भी खुले .विभीषणजी को इस सिंघल द्वीप का अध्यक्ष बनाऊँ.मैं आकर यहाँ चुनाव में रोड शो करूं.इस तरह से दोनों देशों के सम्बन्ध मजबूत बनें और आप लोग भी सभ्य और सुसंस्कृत बनें.आप के देश में भी जो भिन्न भाषा, भिन्न संस्कृति, भिन्न देश, भिन्न रहन-सहन के लोग रहते हैं, उनको इस देश से खदेड़ कर बाहर किया जाए.अरे भाई आपका इतिहास अलग है.आपका भूगोल अलग है तो फिर आप देशभक्त कैसे हुए?आप तो घुसपैठिये हैं.आप देश के गद्दार हैं.इनसे निजात बी.जे.पी. ही दिलायेगी.यहाँ बड़ी संख्या में बी.जे.पी. और आर.एस.एस.की शाखा खुले.बी.जे.पी. सत्ता में आये, मेरा वादा है आप सभी के अच्छे दिन जरूर आयेंगे.पुनः आप हमें शीघ्र  बुलाइएगा.आपने हमें इतने ध्यान से सुना.खूब तालियाँ बजाईं.बहुत-बहुत धन्यवाद.अब मैं ऋषि वाणी को विराम देता हूँ.''

आत्मनिर्भर शशि कुमार सिंह

आत्मनिर्भर

''रोको रोको  जल्दी रोको नहीं तो गाय-गाय चिल्लाऊंगा फिर समझ लेना.दिखाओ ट्रक में क्या है?''
''कुछ नहीं साहब कचरा है.फेंकने जा रहा हूं.''
''ठीक है दिखाओ.''
''ठीक है साहब.''
''अरे ये तो नेताजी लोग लग रहे हैं.तुम कह रहे हो कचरा है.''
''एक ही बात है सर.''
''तुम इनका महत्व नहीं समझोगे.हम 'मेक इन इंडिया' के तहत कचरे से बिजली बनायेंगे.देश को बिजली की तत्काल आवश्यकता है.''
''मगर साहब ये लोग तो भ्रष्ट और देशद्रोही पार्टी में रहे हैं.आप भ्रष्ट और देशद्रोहियों को अपनी पार्टी में लेकर अपनी पार्टी को क्यों अशुद्ध कर रहे हैं.''
''देखो मूल चीज है आत्मा.अब अगर इनकी आत्मा कह रही है कि वह पार्टी इनके लिए ठीक नहीं थी.हमारी पार्टी ठीक है तो हम इनका स्वागत करते हैं.हम इनका हल्का सा बौद्धिक करेंगे.फिर तुम भी नहीं पहचान पाओगे.ये हमसे भी बड़े देशभक्त और ईमानदार हो जायेंगे.देशभक्ति और ईमानदारी भी एक नशा है, बस लगने की देर है.इन्हें भी लग जायेगा.''
''बिलकुल साहब आप जैसा देशभक्त और ईमानदार मैंने नहीं देखा.....ठीक है साहब जल्दी ट्रक से कचरा ले जाइए और बिजली बनाइये.''
''बिलकुल हम कचरे से बिजली बनाकर समूचे देश में तेजी से आत्मनिर्भर हो रहे हैं.''

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