प्रायश्चित्त
मोहनलालजी पक्के गांधीवादी थे.गांधीजयन्ती की तैयारी बड़े जोर-शोर से करते थे.इस विशेष अवसर पर वे खादी के वस्त्र ही धारण करते थे.मोहनलालजी भाषण बहुत अच्छा देते थे.पूरी दुनिया कहती कि मोहनलालजी को सरस्वती सिद्ध हैं.पर गाँधी जयंती को वे और भी ललकारकर भाषण देते.मोहनलालजी का उत्साह देख लोग दांतों तले उंगली दबाते.उस दिन वे बिलकुल सुबह उठते और रामधुन गुनगुनाते.ऊँचे स्वर में लोगों से सत्य, अहिंसा और भाईचारे की अपील करते.चरखा चलाते और रामधुन गाते.फिर रामधुन गाते और चरखा चलाते.पर मोहनलालजी आज बड़े उदास भी लग रहे थे.अपनी उदासी को वे रामधुन में छिपाने की कोशिश करते.उदासी का कोई कारण किसी की भी समझ में नहीं आ रहा था.लोग सोचते कोई पारिवारिक समस्या होगी.परन्तु वे माया के बंधन से बहुत पहले ही ऊपर उठ चुके थे.उनकी उदासी शांतिप्रिय सोहनलालजी से देखी न गयी.उन्होंने पूछ ही दिया.मोहनलालजी 'अँधेरा होने दो बताऊँगा' कहकर और भी जोर से रामधुन गाने लगे.इस बार उनके स्वर में पीड़ा की मात्रा ज्यादा थी.
मोहनलालजी और उनके परममित्र सोहनलालजी अँधेरेकी प्रतीक्षा करने लगे.अँधेरा होते ही सोहनलालजी ने सवाल दाग दिया,''मित्र किस पीड़ा में आप घुले जा रहे हैं?मैं तुम्हारा मित्र हूँ.मुझसे कहो.कहने से मन हल्का होगा.''
मोहनलालजी बोले, ''मित्रवर मुझे नाथूरामजी के बलिथान-स्थल पर ले चलिए.चित्त बहुत व्यथित है.मुझे प्रायश्चित करनी है.''
मोहनलालजी और उनके परममित्र शांतिप्रिय सोहनलालजी दोनों नाथूरामजी के बलिदान-स्थल पर पहुँच गए.मोहनलालजी साष्टांग लेट गए.कुछ देर लेटे रहे.मोहनलालजी के नेत्रों से अश्रुधारा बह रही थी.सोहनलालजी उन्हें उठाने की कोशिश करते पर वे बार-बार लेट जाते.सोहनलालजी को तुलसी बाबा की चौपाई याद आ रही थी.वे भी अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं रख पाए.मित्र को रोता देखकर उनकी भी अश्रुधारा उद्दाम वेग से बह निकली.किसी प्रकार भावनाओं पर नियंत्रण करते हुए उन्होंने कहा,''हे मित्र उठो.इस तरह रोने-धोने से कुछ नहीं होता.आप हमारे मार्गदर्शक हैं.अगर आप ही अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं रखेंगे तो आपके भक्तों का क्या होगा, सनातन धर्म का क्या होगा, सोचा है कभी?''
''नहीं मित्र मुझे प्रायश्चित करने दो.हिन्दू हित के लिए जिन्होंने इतना बड़ा बलिदान दिया हो, उसकी इच्छा के विपरीत ऐसा करना मुझे भी अच्छा नहीं लगता.''
''कोई बात नहीं मित्र, आपकी विवशता से हम परिचित हैं.''
''मित्र मैं विवश हूँ.नाथूरामजी क्षमा तो कर देंगे न?हा नाथूरामजी आप यकीन करें, मैं हृदय से नाथूवादी हूँ.''
किसी तरह सोहनलालजी ने उन्हें उठाया और ढाढस बंधाया,''हा मित्र आप बहुत रोये.आपका रोना देखकर मेरे आंसू भी रुकने का नाम नहीं ले रहे थे.किसी तरह मैंने अपनी भावनाओं पर नियंत्रण किया.अब कैसा महसूस कर रहे हो?''
''अब जी थोड़ा हल्का लग रहा है.उम्मीद है नाथूरामजी मेरी विवशता समझेंगे और मुझे माफ़ कर देंगे.''
''बिलकुल नाथूरामजी दयावान है.वे हमारी विवशता समझेंगे.''
नाथू बाबा के जयघोष के साथ मोहनलालजी और उनके परममित्र शांतिप्रिय सोहनलालजी दोनों बलिदान स्थल से प्रसन्नतापूर्वक लौट रहे थे.प्रायश्चित्त के बाद मोहनलालजी का मन अब कुछ हल्का हो गया था.शांतिप्रिय सोहनलालजी भी अब राहत की सांस ले रहे थे.
शशि कुमार सिंह
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