Monday, 30 April 2018

सोनिया बहुखंडी की कविता ब्रेस्टकैंसर

ब्रेस्टकैंसर
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पृथ्वी सी  चंचल मेरी देह में
उसे पसंद थी मेरी दोनों धुरियां
ये धुरियां जिंदगी में डूब कर
ऋतुएं बना रही थी

वो अक्सर खो जाता था ठंडी-गर्म
ऋतुओं के बीच,
और देखता था वहां से निकलती दूध की नदियों को
जिसकी याद अब तक मेरे बच्चे के होंठो पर है

ऋतुएं डूबती रहीं परिवर्तन की गर्म बाल्टी में
उभर आई धुरियों में दो पॉपकॉर्न सी गांठे
पृथ्वी सुन्न!
जड़ से काट दी गई गांठों वाली धुरियां
छूट गया दूध की सूखी नदी का निशान
और एक सपाट मैदान

जब कोई कहता पृथ्वी का अंत निकट है
वो उम्मीदों की हंसी घोलता और कहता-
तुम दुनिया की सबसे सुन्दर गंजी औरत हो
दर्द की अनंत गुफाओं को पार कर मैं बाहर निकलती

क्योंकि पृथ्वी की गति बंद नहीं होती
वह सूर्य के चक्कर काटती रहती है
हाँ मौत सहम के जीवन के अंत में जरूर खड़ी हो जाती है
सूखी नदियों के निशान ताकते ताकते जीवन ठहर जाता है

मेरे बेटे के होंठो में खिल जाते हैं धुरियों की यादों के फूल
उसके मुस्कराने से मौसम बदल रहा है।

Saturday, 28 April 2018

निलय उपाध्याय की किसान कविता बेदखल

बेदखल
मैं एक किसान हूँ
अपनी रोजी नहीं कमा सकता इस गाँव में
मुझे देख बिसूरने लगते हैं मेरे खेत
मेरा हँसुआ
मेरी खुरपी
मेरी कुदाल और मेरी,
जरूरत नहीं रही
अंगरेज़ी जाने बगैर सम्भव नहीं होगा अब
खेत में उतरना
संसद भवन और विधान सभा में बैठकर
हँसते हैं
मुझ पर व्यंग्य कसते हैं
मेरे ही चुने हुए प्रतिनिधि
मैं जानता हूँ
बेदख़ल किए जाने के बाद
चौड़े डील और ऊँची सींग वाले हमारे बैल
सबसे पहले कसाइयों द्वारा ख़रीदे गये
कोई कसाई…
कर रहा है मेरी बेदख़ली का इंतजार
घर के छप्पर पर
मैंने तो चढ़ाई थी लौकी की लतर –
यह क्या फल रहा है?
मैने तो डाला था अदहन में चावल
यह क्या पक रहा है?
मैंने तो उड़ाये थे आसमान में कबूतर
ये कौन छा रहा है?
मुझे कहाँ जाना है-
किस दिशा में?
बरगद की छाँव के मेरे दिन कहाँ गये
नदी की धार के मेरे दिन कहाँ गये
माँ के आँचल-सी छाँव और दुलार के मेरे दिन कहाँ गये
सरसों के फूलों और तारों से भरा आसमान
मेरा नहीं रहा
धूप से
मेरी मुलाकात होगी धमन-भट्ठियों में
हवा से कोलतार की सड़कों पर
और मेरा गाँव?
मेरा गाँव बसेगा
दिल्ली मुम्बई जैसे महानगरों की कीचड़-पट्टी में
मैं गाँव से जा रहा हूँ
कुछ चीज़ें लेकर जा रहा हूँ
कुछ चीज़ें छोड़कर जा रहा हूँ
मैं गाँव से जा रहा हूँ
किसी सूतक का वस्त्र पहने
पाँच पोर की लग्गी काँख में दबाए
मैं गाँव से जा रहा हूँ
अपना युद्ध हार चुका हूँ मैं
विजेता से पनाह माँगने जा रहा हूँ
मैं गाँव से जा रहा हूँ
खेत चुप हैं
हवा ख़ामोश, धरती से आसमान तक
तना है मौन, मौन के भीतर हाँक लगा रहे हैं
मेरे पुरखे… मेरे पित्तर, उन्हें मिल गई है
मेरी पराजय, मेरे जाने की ख़बर
मुझे याद रखना
मैं गाँव से जा रहा हूँ।
                        -निलय उपाध्याय
निलय उपाध्याय

Thursday, 26 April 2018

शैलजा पाठक की भोजपुरी में अनुदित कविताएं

1
" मेहरारु "
मेहरारुन के बुझे खाति शायद जरुरी बा ओह लो के मेहरारुन के ही आंखि से देखल । शैलजा पाठक जी के कविता मे खास बात ई होला कि हिन्दी शब्द ओतना कडेर ना होला जवना के मांग एह घरी हिन्दी साहित्य मे लोग करता भा जोहता , एहि से हमरा खाति कविता के मरम के बुझल तनी आसान हो जाला । एह कविता के भी हम शैलजा जी भा अपना माई बहिन या मेहरारु के आंखि से देखे के कोशिश कईले बानी अनुवाद करत घरी .. पता ना कतना सफल बानी बाकि कोशिश ईमानदार बडुवे ।
घाव प शीत लगावत
जरल बा, फुंकत , फुंकि के उडावत
खउलत फफात के चिटुकी मे धरत
भींजल हाँथ से सुख के चार गो कवर खियावत
कईसे एह लो के धान आ खोइया लेखा फटक दिहल जाला
अलगा दिहल जाला
दु गो हिस्सा मे मेहरारुन के बांट दिहल जाला
पनपे ली लो
बंजर माटी मे नेह छोह के रोपत बढावे ली लो घर परिवार
नून के सही अनुपात ना मिलला प लानत मलानत
सीखत बाडी सीखि जईहे , रोवत बाकि मुस्कियात
मेहरारु ।
तनकी सा गलती प
संवसे नईहर मुडि नवा के खडा हो जाला
ससुराल के आंगन मे
कांच आम लेखा भींजा दिहल जाला एह लो के तेल मे
बरिसन तक चटक स्वाद छोडि देला लो जुबान प
पहिला बेरि सरौता पंहसुल प आपने हाँथ आजमावे ला लो
माई के सिखावल गीत बुद-बुदाला लो
तहरा उजर कालर प बुरुस रगरत , कालर के के उजर
अपना हाँथ के लाल कई ले लो
मेहरारु
गिल बार भींजल माथ प झट से लगा लेली चिपका ले ली
तहरा नाव के सेनुर आ टिकुली
अन्नपुर्ना बनि के चुहानी गमका देली
मेहरारु
टुटल चपल के सेप्टीपिन
फटला मे कढाई रफू के , पेवन लेखा नजर आवेली
बीमार , टुटल ओरचन वाली खटिया प खतम हो चुकल अपना उर्जा के
बिटामिन के गोली घोंटत
हठुआर बनि के लाल पिअर उजर टिकिया गोली से अपना संतुलित करत
बढल खुन के तेजी अबर दुबर चक्कर आ
मेहरारु
आ तू कहत रहेलs कि
कमाल के होली स ,
दवाई , इलाज प का जाने कतना लुटा देली स
मेहरारु !
2
" बेटी , माई लेखा "
हाँथ जरे से पहिले , माई
सम्हार ले ले
आंच आ सिँउँठा के सही पकड
अउरी आग से सही दुरी
आ दे देले हडबडा गईला से जरि जाये सीख
फुलत रोटी महीन पातर आटा से बनावत बेटी
सीख गईल,
आग , दुरी , पकड आ रोटी के सही ब्याकरण
स्कूल से भाग के आवत एह बेटी के
बडहन बैग के माई उठा ले ओकरा पीठ से
बेटी तितली लेखा उडल रहे
माई तनि रिसियाईले बोललस ,
निरमोहिया ,  कतना भारी बा बैग
मय बिसय सम्हार के राखे ली स लइकी
ओकनी के पातर अंगुरी मे पकडा के सुई
माई सीखावत रहली तुडपे मसके रफू करे के
उजर कपडा प लाल फूल
बाद कसि के लगावे के , कंहि खुल ना जाये सियाई
अपना अंगुरी दांत आंखि सुई के ताम मेल से लइकी
सिअतिया अपना जिनगी के फाटल उघरल मय रंग.
ये जादूगरनी सी लड़कियां
जिंदगी सीखती सिखाती सी
ना जाने कौन से देश उड़ जाती हैं.
ई कवन जादू ह लईकिनियन के
जिनगी से सीखत सीखावत
का जाने कवना देस मे उड जाली सs, 
आगि के सओझा बईठ लाल टिकुली लगा के
एक दम से एकनी के माई लेखा बन जाली सs ...
- शैलजा पाठक
अनुवाद - नबीन चंद्रकला कुमार
शैलजा पाठक जी के एह कविता के पढत आ अनुवाद करत , शायद हमरा पहिला हाली एहसास भईल ह बेटिन के लईकिनियन के सोच आ एहसास के । शैलजा जी खुद लईकी आ बेटी हई एह से हो सकेला उँहा खाति एह भाव के राखत शब्दन के जगहि देत आ शब्दन के परतोख के रुप मे राखल , चाहे ऊ सिउंठा आंच रोटी फुलल महीन पातर के ब्याकरण होखे भा आग के सोझा लाल टिकुली आ फेरु ओकर माई बनल ... एह अनुवादित कविता के शीर्षक हम देले बानी , हो सकेला सटीक ना होखे ...
- नबीन चंद्रकला कुमार
शैलजा पाठक

शैलजा पाठक की कविताएं

1
अस्पताल के किसी उदास सफ़ेद बिस्तर पर
नीली पीली कड़वी दवाइयाँ गटकते हुए
मैं जोर से मुठ्ठियों में कसती हूँ
तुम्हारा हाथ
कई बार मैं दिवार की टेक लगा कर लेती हूँ सुस्त लम्बी सांस
तुम्हारा हाथ मेरी पीठ पर तसल्ली लिखता है
मूर्खता तो ये देखो की पलट कर ली गई शीशियों की दवाई में मैं सोचती हूँ तुम्हारा कोई हिस्सा बस अभी छन से मेरी कमर में चुभेगा
एक मीठे दर्द से करवट बदलूंगी
और मुस्कराती हुई सो जाउंगी
सुबह मेरी चप्पले बिलकुल सीधी मिली मुझे
मैं बिस्तर से उठकर तुम्हारी हथेलियों पर चार कदम चलती हूँ
जरा जल्दी थक जा रही इन दिनों
हरे पर्दे की खिड़की को एकटक देखती हूँ
और एक यात्रा में तुम्हारे साथ चल पड़ती हूँ
कितना हरा होता है वो रास्ता जिसमे डूब कर निकल जाते हैं हम
एक फोटो में कुछ फूल हैं कुछ रास्ते
एक आसमान में घुप्प गहरे काले बादल
जमीन से कितने सटे से होते हैं न
तुम मुठ्ठी भर बादल उछालते हो
मैं छपाक से भींग जाती हूँ
नींद में सरक गई चादर को तुम गले तक ओढाते और कह जाते हो
जल्दी से ठीक हो जा लड़की
मेरी थपकी से भिजते तुम्हारे माथे की शिकन
मैं तो चूम के निकल जाती हूँ हर रोज़
नींद भर कसमसाते से तुम
प्रेम रूह में बसा हो न
तकलीफें हार मान जाती हैं ....
2
वो कहाँ गई / शैलजा पाठक
एक झूला था
झूले में लटका पीढ़ा था
पीढ़े पर बैठी गुड़िया थी
जो आसमान से ड़रती थी
जो आँखें मूंदे रहती थी
तुम पींग बढ़ाते थे जब जब
वो तुमसे लिपटी रहती थी
वो कहाँ गई ?
पूछो बरगद से पीपल से
पूछो आँगन की मिट्टी से
पूछो सखियों की कट्टी से
भैया से चाहो तो पूछो
अम्मा से पूछो पापा से
वो गई कहाँ ?
चाहो तो आँगन से पूछो
रूठे इस छाजन से पूछो
गूंगे पायल से भी पूछो
चूल्हे चौके से पूछो न
जो आग दहकती है उसमें
झुलसी उस चिड़िया से पूछो
वो कहाँ गई ?
दरवाजे की चौखट देखो
नन्हे निशान जो उभरे हैं
उस भूरी बिल्ली से पूछो
जो गुमसुम बैठी है छत पर
अलँगी पर उसकी चुनर है
वो राधा बनती थी अक्सर
फोटो के कान्हां से पूछो
वो कहाँ गई ?
एक झूला था
एक चूल्हा था
एक आँगन था
कुछ छमछम थी
एक गुड़िया थी
खो दी तुमनें
कोई रूठे
कोई छूटे
हम भूल उन्हें क्यों जाते हैं
क्यों वापस खोज नही लाते
क्यों मान मनौवल भूल गए
एक जंगल था
एक पीपल था
एक गुड़िया .....कबसे नही मिली...
ढूंढो उसको...
तुम चोटी करना भूलोगे
तुम रिबन चूड़ी भूलोगे
तुम काजल बिंदी भूलोगे
तुम भूलोगे लंहगा घाघर
तुम नदियां सागर भूलोगे
ये आधी दुनियाँ मुठ्ठी में
चुप चाप लिए खो जाएँगी....
3
प्रेम
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प्रेम
चूल्हे में सुलगता उपला
जले तो आग बुझे तो धुआं
गौरय्या के चोंच से फिसला दाना
घोंसले के रतजगे
प्रेम
लिखी हुई इबारत
जिसमें डूब गई एक नदी
घाट किनारे का आखिरी डगमगता दीया
सीढ़ियों से टकराती दुआएं
प्रेम
मेरे खाली दुपट्टे की छोर में बंधा एक गर्म दोपहर
एक सावली सहलाती छुवन सी याद
प्रेम
विगत के सपनें बीती सी बात
बार बार आँख में चुभता एक अदृश्य तिनका
गुलाबी शाम का सबसे सांवला आलिंगन...
3
बुझी लालटेन के शीशे काले होते हैं
कुछ शशिकांत नाम के लड़कों को लवंडा कहा गया
वो शादी बरात जचगी ऐसे अवसर पर बुलाये जाते
नचाये जाते लूट लिए और लूटा दिए जाते
मौसम का हिट गाना बजता
मैं रात भर न सोई रे नादान बालमा अरे बेईमान बालमा
घर में सबको पता है ये लड़का है लड़की के भेष में
पर इस भेष का नशा चढ़ता
शाम बढ़ती
लाइट लट्टू गैस पेट्रो की पीली रौशनी बढ़ती और जवानी चढ़ती
छोरा कमर के खुले जगह पर घर की अम्मा का हाथ धरवाता और मोटी रकम निकलवाता
हम छोटी लड़कियों ने ये नाच किसी चाची किसी भौजी के पीठ पीछे छिपकर देखा
छत पर रंग फैलता
गाना ढोलक पर बिजली सा तड़प कर कुलांचे भर कर नाचता शशिकांत
घर के मर्द दूर छतों पर बैठे इशारे करते
फब्तियां कसते
रुपया निकाल उसे अपने पास बुलाते
उसके पास जाते उसकी कमर में हाथ डालते
उसकी छाती पर हाथ मारते
उसके देह से उठती पाउडर की खुशबु में मदहोश वो भूल जाते
ये लड़का है कई बार खैनी खाते हुए रस्ते में मिला है
उसकी छाती में पैसा ठूसते
खम्भा पकड़ के रोईं मैं नादान बालमा से सुर ताल सब इस पल बेसुरे हो जाते
शशिकांत साड़ी ठीक करते आता
और महफूज औरत की टोली में रोता सा नाचने लगता
महफ़िल खत्म होती
वो धीरे धीरे अपने ऊपर पहनी औरत उतारता
बक्से में सहेजता
वो चाहता अपनी देह से उतारी उस औरत को गले लगाये
माग ले माफ़ी
सहेज ले घुंघुरू बिंदी की थाती
उनकी कमर के नाख़ून पर हल्दी मल दे
उनकी छातियों को नर्म फाहे सा सेंक दे
शशिकांत घण्टे भर की औरत था
शर्मिंदा रहता
आदमी होने की घिन से भरा रहता
मजबूरी उसे नचाती
वो रात भर नही सोता
वो ढोल पर गाती आवाजो के साये में सांस लेता
और महफ़िल की भीड़ में कूद कर मटकता
एक शाम घर से निकली टमटम पे बैठ कर मैं सैंया ने ऐसे देखा .....
हैरान होके रोईं मैं नादान बालमा अरे बेईमान बालमा .....
-शैलजा पाठक -
शैलजा पाठक

शैलजा पाठक की कविता ये बदन पर गलियों का लेप है ..

ये बदन पर गालियों का लेप है / अब नहाने का वक्त हुआ
एक मर्द देर रात नशे में है
वो खाने की थाली को लात मारता है
वो औरत को देख करता है आँखें लाल
वो बच्चों को बड़ी आवाज में सो जाने का आदेश देता है
बच्चों के कमरे में शांत सी हलचल है
बच्चों की आँख दिवार के पार देख रही
बच्चों के कान दिवार से झरती आवाज पर सिमट रहे
आदमी औरत की रात है
बेमतलब के नशे वाले विवाद है
औरत चीख नही रहे बच्चों की ख़ातिर
आदमी दाग रहा उसके हाथ
दाल में ऊगली डूबा उसे पानी बता रहा
ये हरामजादी ही रहेगी
बता रहा
रात के काले पन्ने पर घोर सन्नाटा है
अदालत के सोने का समय
पुलिस के सोने का समय
न्याय के सोने का समय
आदम के जाग की रात है
सब हरामजादी औरत की छाती पर
दांत गड़ाये सो रहे हैं
ये कभी नही खुलने वाली नींद है
ये कभी न खत्म होने वाली रात है
किसी ने देह का पैसा चुकाया
किसी ने हक़
रात हरामजादी औरत है
तुम उसी हरामजादी के जने ........
शैलजा पाठक

बलात्कार के विरुद्ध शिव शक्ति कुमार की कविता के बाद बलात्कार

के बाद बलात्कार

एक लड़की का बलात्कार हो जाने के बाद
और तीन बार उसके साथ बालात्कार होता है
फर्क सिर्फ इतना होता है
कि उसकी चीखे गुम हो जाती है
पहली बार मेजो की थपथपाहट में
दूसरी बार हथौड़े की ठकठकाहट
और तीसरी बार
सडक की फुसफुसाहट में
           

Wednesday, 25 April 2018

फिलिस्तीन के कवि ताहा मुहम्मद अली की कविता

कभी-कभी... कामना करता हूँ
कि किसी द्वंद्व युद्ध में मिल पाता मैं
उस शख्स से जिसने मारा था मेरे पिता को
और बर्बाद कर दिया था घर हमारा,
मुझे निर्वासित करते हुए
एक संकरे से देश में.
और अगर वह मार देता है मुझे
तो मुझे चैन मिलेगा आखिरकार
और अगर तैयार हुआ मैं
तो बदला ले लूंगा अपना!

किन्तु मेरे प्रतिद्वंद्वी के नजर आने पर
यदि यह पता चला
कि उसकी एक माँ है
उसका इंतज़ार करती हुई,
या एक पिता
जो अपना दाहिना हाथ
रख लेते हैं अपने सीने पर दिल की जगह के ऊपर
जब कभी देर हो जाती है उनके बेटे को
मुलाक़ात के तयशुदा वक़्त से
आधे घंटे की देरी पर भी --
तो मैं उसे नहीं मारूंगा,
भले ही मौक़ा रहे मेरे पास. 

इसी तरह... मैं
तब भी क़त्ल नहीं करूंगा उसका
यदि समय रहते पता चल गया
कि उसका एक भाई है और बहनें
जो प्रेम करते हैं उससे और हमेशा
उसे देखने की हसरत रहती है उनके दिल में.
या एक बीबी है उसकी, उसका स्वागत करने के लिए
और बच्चे, जो
सह नहीं सकते उसकी जुदाई
और जिन्हें रोमांचित कर देते हैं उसके तोहफे.

या फिर, उसके
यार-दोस्त हैं, 
उसके परिचित पड़ोसी
कैदखाने या किसी अस्पताल के कमरे
के उसके साथी,
या स्कूल के उसके सहपाठी...
उसे पूछने वाले
या सम्मान देने वाले उसे.

मगर यदि
कोई न निकला उसके आगे-पीछे --
पेड़ से कटी किसी डाली की तरह --
बिना माँ-बाप के,
न भाई, न बहन, 
बिना बीबी-बच्चों के,
किसी रिश्तेदार, पड़ोसी या दोस्त
संगी-सहकर्मी के बिना,
तो उसके कष्ट में मैं कोई इजाफा नहीं करूंगा
कुछ नहीं जोड़ूंगा उस अकेलेपन में --
न तो मृत्यु का संताप,
न ही गुजर जाने का गम.
बल्कि संयत रहूँगा
उसे नजरअंदाज करते हुए
जब उसकी बगल से गुजरूँगा सड़क पर --
क्योंकि समझा लिया है मैंने खुद को
कि उसकी तरफ ध्यान न देना
एक तरह का बदला ही है अपने आप में

- ताहा मुहम्मद अली ( फिलिस्तीन )
अनुवाद - मनोज पटेल

आवेश तिवारी की कविता सुनो श्वेताम्बरा


सुनो श्वेताम्बरा
सुनो ! क्यूंकि इन अनगिनत चुप्पियों के बीच कुछ भी कहना साँसों के आने जाने जैसा है
और कुछ भी सुनना यह बताता है कि अभी भी आसमान का रंग नीला है
पानी रंगहीन हैं, जमीन हरी है
और मुक्ति केवल एक शब्द भर है |
सुनो, क्यूंकि ये आँखें दिन रात उदासियों के नए ठिकाने ढूंढती है
वो ढूंढती हैं पीली पत्तियां ,कपास की खेती कर रहे किसानों के खुरदुरे हाथों जैसी पेड़ों की टहनियां 
या फिर धूल उड़ाती वो सिरफिरी सी सड़कें,जिन पर आजकल परछाइयों की भीड़ है

हाँ श्वेताम्बरा ,मेरी आँखों को सुकून देता है डूबता हुआ सूरज और दिल को सूकून देती है अँधेरे से भी काली रात
सुनो ,क्यूंकि अभी भी बची है थोड़ी सी आंच
जिससे लिपटकर गुजारी जा सकती है ठंडी सी इस उम्र में कोई ठिठुरती हुई सुबह
सुनो श्वेताम्बरा
सुनो ,क्यूंकि तुम्हारी उदास रातों में ख़्वाबों का शामियाना सूना पड़ा है
इस शामियाने में न तो कोई सतरंगी चिड़िया अपना घोसला सजाती है
न ही इसमें स्मृतियों के बंदनवार सजे हैं |
सुनो ,क्यूंकि शाम ढले घर लौटने वाला मल्लाह गरम पहाड़ों के गीत भूल चूका है
सुनो ,क्यूंकि हर एक पल बीता हुआ पल है ,हर एक रात खोई हुई रात
हर सुबह खोई हुई सुबह
तुम सुनो यह इसलिए भी जरुरी है क्यूंकि तुम्हे कहना भी है
तुम्हे रहना भी है, तुम्हे सहना भी है |

-आवेश
(जब एक मौसम कविताओं का भी होता था )

2

सुनो श्वेताम्बरा
बेमौसम की मोहब्बत सर्दियों में ही दम तोडती है
सर्द सुबह में ही कहानियाँ लिखता है अलाव
गीली हो जाती है कविता |
तुम तो जानती हो न ?
जनवरी का महीना  जब तक बसंत की आहट को सुने
सूरज के  दरवाजे  पर हम बदहवासों की  दस्तक ख़त्म हो जाती है |
पत्तियों की ख़ामोशी पर पेड़ शर्मिंदा है
और  मैं एक  किसान की तरह  सहमा हुआ हूँ
ऐसा इसलिए हैं
क्योंकि मैं  तुम्हे फसल की तरह प्यार करता था |
इस बीच
सर्द रातों  में स्मृतियों का काफिला जिन जिन चौराहों से आगे बढ़ता है
फिलहाल वहां कोहरे की अकुलाहट को कम करने के लिए  बारिश हो रही है
सिगरेट का  कश किसी स्ट्रीट लैम्प सा रास्ता तो दिखाता है ,लेकिन इस बार धुंआ ज्यादा है
वक्त लगेगा उन्हें सरहद तक पहुँचने में |

सुनो श्वेताम्बरा
तुम्हारा न होना इस मौसम को दिया गया एक  जवाब है
जिसकी नजीर देकर लोग मोहब्बत के लिए नए मौसमों का इन्तजार करेंगे |
वो जब फूलों को छुएंगे तो उनमे उन्हें कविता नहीं रंग नजर आएगा
वो सूरज की धूप को विजय और चाँद रात को आसमान का उपहार समझेंगे
वो नहीं करेंगे मुकाबला पश्चिम से आने वाली हवाओं का किसी रंगीन दुपट्टे से
उनके होठों पर खुश्की नहीं होगी
न ही उन्हें अपनी हथेलियों को गरम रखने के लिए किसी के जेबों की जरुरत होगी |
वो नहीं जायेंगे शिमला ,मनाली ,नैनीताल
उन्होंने नहीं देखा होगा सर्दियों में बरफ के पहाड़ों को
इस मौसम में
उन्हें विदर्भ की याद आएगी
उन्हें याद आयेंगे अजंता में सोये हुए बुद्ध
वो प्रेम गीत की जगह कर्म गीत गायेंगे
वो उन चीजों को करेंगे
जिससे उनके मोहब्बत में न होने की बात तस्दीक हो
वो उन चीजों को भी करेंगे
जिनसे फिर से न लिखी जा सके ऐसी कोई कविता|

मृगतृष्णा की कविता बेटी की कविता पिता के लिए

बेटी की कविता पिता के लिए
…...............…...................
यार पिता
वैसे तो संभावनाएं इसकी पांच पर्सेंट की ही हैं
पर ये पांच ही चाहिए मुझको दुनिया से
जैसे काया के तत्व सब पांच
हम दोनों अपने ख़ानदानी वटवृक्ष सरीखे महुवे के पेड़ के नीचे
जहाँ हमारे सब पुरखे सोते हैं
कभी अगल बगल बैठेंगे 
और सुनेंगे कि कैसे कुमार गन्धर्व गाते हैं
'जग दर्शन का मेला'

-मृगतृष्णा

Tuesday, 24 April 2018

धर्मवीर यादव गगन की कविता वीरांगना फूलन

जब मैं बुड्ढा हो जाऊँगा

तब मेरा बेटा मेरी गोद में बैठकर

मेरी जवानी के किस्से पूछेगा

मैं आंसू बहाते हुए

बस यही कह पाऊंगा

मेरे बच्चे

मेरी जवानी में कोई वीरांगना फूलन नहीं थी

इसलिए वो दरिंदे

किसी की भी गर्दन काटकर

रस्सी में बाँध

पेड़ से लटका देते

किसी जवान लड़की का

रेप कर उसे जिन्दा जला देते

या उसकी हत्या कर

उसे पेड़ से लटका देते

हम सब उस समय उस टँगी हुई

लाश के चारो ओर बैठकर विलखते रहते

जब बच्चा पूछेगा

कि बाबा आप लोग

‘बुआ फूलन’ क्यों नहीं बन गए ?

हम कुछ नहीं बोल पाएंगे

तब भी बैठे – बैठे हम आंसू बहाएंगे.

मेरा बच्चा मेरी गोंद से उठकर

मेरी आँखों में आँखें डालकर

घूरते हुए फूलन बन, वहां जाएगा

जहाँ कोई निहत्था लड़ रहा होगा

तलवार बाज हाथों से;

उस निहत्थे हाथ को मजबूत करेगा —

मनुष्यता के लिए

समानता के लिए

बंधुता के लिए l

- धर्मवीर यादव गगन

युवा कवि अरुणाभ सौरभ की कविता वो स्साला बिहारी

वो स्साला बिहारी
अबे तेरी…
और कॉलर पकड़
तीन-चार
जड़ दिए जाते हैं
मुंह पर

इतने से नहीं तो
बिहारी मादर…
चोर, चीलड़, पॉकेटमार
भौंसड़ी के…

सुबह हो गई
चाय ला
तेरी भैण की
झाडू-पोछा
तेरी मां लगाएगी?

जब भी मैं
अपने लोगों के बीच से
गुजरता हूं
रोजाना सुनने को मिलती हैं
कानों को हिला देने वाली गालियां
उनके लिए जो

हर ट्रेन के
जनरल डब्बे में
हुजूम बनाकर चढ़े थे
भागलपुर, मुजफ्फरपुर
दरभंगा, सहरसा, कटिहार से
सभी स्टेशनों पर
दिल्ली, मुंबई, सूरत, अमृतसर, कोलकाता, गुवाहाटी
जाने वाली सभी ट्रेनों में
अपना गांव, अपना देस छोड़कर
निकला था वो
मैले-कुचैले एयरबैग लेकर
दो वक़्त की रोटी पर
एक चुटकी नमक
दो बूंद सरसों तेल
आधा प्याज के खातिर
जो गांव में मिला नहीं
कटिहार से पटना तक
नहीं मिला

और जब निकल गया वहां से, तो
शौचालय के गेट पर
गमछा बिछाकर बैठ गया
और गंतव्य तक
पहुंचने के बाद
भूल गया कि
वो कहां है, कहां का है
सीखनी शुरू कर दी
हर शहर की भाषा
पर स्साला बिहारी
मुंह खोलते ही
लोगों को पता लग जाता है

देश के सभी बड़े शहरों में
वो झाडू लगता रहा
बरतन मांजता रहा
रिक्शा खींचता रहा
ठेला चलाता रहा
संडास को हटाता रहा
मैला ढोता रहा
हर ग़म को
चिलम की सोंट पर
और खैनी के ताव पर
भूलकर, वह
बीड़ी पर बीड़ी जलाता रहा

गांव पहुंचने पर भी
अभ्यास किया
तेरे को, मेरे को…
पर हर जगह जो मिला
सहर्ष स्वीकार किया
झाडू, कंटर, बरतन
रिक्शा, ठेला और गालियां
और लात-घूसे
और उतने पैसे, कि
वो, उसका परिवार
और उसकी बीड़ी, खैनी
चलते रहे

अपने टपकते पसीने में सीमेंट-बालू सानकर
उसने कलकत्ता बनाया था
अपने खून में चारकोल सानकर
उसने बनाए थे दिल्ली तक जाने वाले सारे
राष्ट्रीय राजमार्ग

वज्र जैसी हड्डियों की ताकत से
उसने खड़ी की थीं
बम्बई की सारी ईमारतें
फेफड़े में घुसे जा रहे रुई के रेशे से
खांसते-खांसते दम ले-लेकर
उसने खड़ा किया था सूरत

कितनी रातों भूख से जाग-जाग
रैनबसेरा पर उसने सपने देखे थे
लुधियाना, चंडीगढ़, हिसार से लेकर
जमशेदपुर, रांची, बिलासपुर, दुर्गापुर, राउरकेला
और रुड़की, बंगलौर तक को
संवारने, निखारने के
अपनी आह के दम पर
उसने कितने
मद्रास को चेन्नैई
बंबई को मुंबई
होते देखा था
उसे पता था कि
उसके बिना जाम ही जाती हैं
हैदराबाद से लेकर शिलांग तक की सारी नालियां

कितने पंजाब, कितने हरियाणा और
मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ की खरीफ से लेकर रबी फसलें
उसी के हाथों काटी जाएंगी
फायदा चाहे जिसका भी हो

धूप ने
उसकी चमड़ी पर आकर
कविता लिखी थी
पसीने ने उसकी गंदी कमीज पर
अल्पना बनाई थी

रंगोली सजाई थी
कुदाल ने उसकी किस्मत पर
अभी अभी सितारे जड़े थे
रिक्शे ने अरमान जगाया था
कि अचानक उसकी बीवी चूड़ी तोड़ देती है
सिन्दूर पोंछ लेती है
कि ठेला पकड़े हुए हाथ
अभी भी ठेला पकड़े हुए हैं
और गर्दन पर
खून का थक्का जम गया है
वो स्साला बिहारी
कट गया है, गाजर मूली की तरह सामूहिक
बंबई या गुवाहाटी में
और बीवियां चूड़ी तोड़ रही हैं
लेकिन साला जबतक जिंदा रहा
जानता था कि
इस देश के
हिंदू समाज के लिए
जितना संदेहास्पद है
मुसलमान का होना
उससे ज्यादा अभिशाप है
भारत में बिहारी

साला यह भी जानता था कि
बिहारी होना मतलब दिन रात
खटते मजूरी करना है जी-जान से
उसे मालूम था कि कहीं
पकड़ा जाय झूठ-मूठ चोरी-चपारी के आरोप में तो
नहीं बचाएंगे उसे जिला-जवार के अफसर
बिहारी का मतलब वो जानता था कि
अफसर, मंत्री, महाजन होना नहीं है

बिहारी का मतलब
फावड़ा चलाना है
पत्थर तोड़ना है
गटर साफ़ करना है
दरबानी करना है
चौकीदारी करना है

आवाज में निरंतरता है–
ओय बिहारी
तेरी मां की
तेज-तेज फावड़ा चला
निठल्ले
यूपी बिहार के चूतिये
तेरी भैण की
तेरी मां की…

अम्बर रंजन पांडेय की कविता रक्तपात

रक्तपात

कदली के कुञ्ज में, कोने में जहाँ दीपक की आड़ जैसी अंध-ज्योत थी
वहीँ कौमार्य नष्ट किया उसका
किसे समाचार होता
यदि कौओं का झुण्ड 'षडज षडज'
करता नहीं ऊपर;  देखकर उसका
शुद्ध, गाढ़ा रक्त
उसी की कोपवती आँखों के रंगवाला

Monday, 23 April 2018

केदारनाथ सिंह की कविता सार्त्र की क़ब्र पर

सार्त्र की क़ब्र पर
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सैकड़ों सोई हुई क़ब्रों के बीच
वह अकेली क़ब्र थी
जो ज़िन्दा थी
कोई अभी-अभी गया था
एक ताज़ा फूलों का गुच्छा रखकर
कल के मुरझाए हुए फूलों की
बगल में

एक लाल फूल के नीचे
मैट्रो का एक पीला-सा टिकट भी पड़ा था
उतना ही ताज़ा
मेरी गाइड ने हँसते हुए कहा–
वापसी का टिकट है
कोई पुरानी मित्र रख गई होगी
कि नींद से उठो
तो आ जाना!

मुझे लगा
अस्तित्व का यह भी एक रंग है
न होने के बाद!

होते यदि सार्त्र
क्या कहते इस पर–
सोचता हुआ होटल लौट रहा था मैं

–केदारनाथ सिंह

Saturday, 21 April 2018

अशोक कुमार पांडेय की कविता बुरे समय की कविताएं

बुरे समय की कविताएं
_______________

(एक)

छिपता है राम की ओट मे बलात्कारी
हत्यारा कंधे पर हाथ रखे करता है अट्टहास
घायल कबूतर का लहू सूखता जाता है माथे पर
लुटेरा तूणीर से निकालता है तीर और सर खुजाता है

मूर्तियों के समय में कितने निरीह हो तुम राम
और कितने मुफ़ीद

-
(दो)

तिरंगा उसके हाथों मे कसमसाता है
रथ पर निःशंक फहराता है भगवा
एक पवित्र नारा बदलता है अश्लील गाली में
और ढेर सारा ताज़ा ख़ून नालियों का रंग बदल देता है

भावनाएं सुरक्षित
आत्माएं क्षत-विक्षत

-
(तीन)

लड़की की उम्र आठ साल
देह पर अनगिनत चोटों के निशान
झरने की तरह बहता ख़ून
कपड़े फटे
आँखें फटीं

प्रतिवाद करता है हत्यारा
लेकिन उसका नाम तो आसिफा है न!

-
(चार)

भूखी है जनता आधी
आधी की देह पर धूल के कपड़े
आधी जनता पिटती है रोज़
आधी बिना अपराध जेल में
आधी की इज़्ज़त न कोई घर
आधी जनता उदास है

बाक़ी आधी जनता की ख़ुशी के लिए 
बस इतना काफी है।

---
अशोक कुमार पाण्डेय

रमेश प्रजापति की कविता प्यारी बेटियों

प्यारी बेटियो!
अब तुमको आसान नही रह गया बचना
भेड़ियों, कुत्तों और भालुओं
गिद्धों और कव्वों से
इन आंखों के सामने ही
नोंच डालते हैं नाज़ुक अंग

लपलपाती जीभ और आंखों की क्रूरता के बीच
कितना बेमानी लगता है
इस बेरहम समय के माथे पर चिपका *बेटी बचाओ* स्लोगन

मां ,बाप,भाई
जब भी चाहते हैं बचाना
इंशानियत को तार-तार करते दरिंदों से
हाथ धोना पड़ता है उन्हें
तब अपने ही जीवन से
कहीं कुछ भी सुरक्षित नहीं सिवाय आदमखोर आदमियों के

जिन्हें रक्षक होना था
वहीं तेरे जीवन और अस्मिता के भक्षक
और लुटेरे बने हैं
आगे नाथ न पीछे पगाह की तरह
बेपरवाह घूम रहे हैं
जो चाहते हैं बक देते हैं

इस बदलती मर्दवादी मानसिक और सामाजिक परिदृश्य के बीच
तुम्हारा पैदा होना ही सबसे बड़ी त्रासदी है बेटियो!
जिन्हें बोलना चाहिए वे सब गूंगे-बहरे बने बैठे हैं

हम कितना चाहे ढोल पीटे कि तुम
पुरुष वर्चस्व को तोड़कर
उड़ो मुक्त गगन में
पर शातिर बाजों के ख़ूनी पंजे
तुम्हारे पंखों को नोचने पर हरदम उतारू रहते हैं

इस आब-ओ-हवा में तुम्हारे सांस लेने से
आत्मग्लानि से भरा इतना डर गया हूँ कि
कायरता की सब हदें पार कर चुका हूं बेटी!

एक कवि कर भी क्या सकता है सिर्फ,
भाषा बदलने के
विचार बदलने के
शब्द बदलने के
प्रतिरोध करने के
परन्तु कविता से दुनिया कतई नहीं बदल सकता है

तुम्हारे पैदा होने के डर से ही
यह धरती बेबस और लाचार बनी कांप रही है
तुम्हारे कोमल कदमों की थाप से हवा हांफ रही है
पेड़ों का कलेजा थरथरा रहा है
आसमान का चेहरा फीका पड़ रहा है

मां की कोख में हीं नहीं
दरिंदों से भरी
इस धरती के किसी भी कोने में
तुम सुरक्षित नहीं हो बेटी!

प्रदीपिका सारस्वत की कविता ध्वंश के इस काल में

प्रदीपिका सारस्वत

ध्वंस के इस काल में 

हथियार उठा लो, लड़कियों
पैने कर लो 
दांत और नाखून
इज़्ज़त और आबरू नाम का महीन रेशम
तुम्हें कमज़ोर कर देने की साज़िश भर है
मत देखो उनके चेहरे
जो तुम्हें सिखाते हैं
कि शर्म तुम्हारा गहना है

तुम्हें सीखना होगा
कि तुम्हारी कोख, तुम्हारी ताकत है
मत पालने दो उसे, किसी की कमज़ोरी
नाज़ुक देह पर जब तक इतराती रहोगी
तुम बनी रहोगी सजावटी सामान, खुली तिजोरी

उठो, निकलो, देखो, चुनो और खत्म कर दो सब कुछ
जो दूर करता है तुम्हें, तुम्हारे होने से
काट दो सब खूबसूरत जाल

ध्वंस के इस काल में 
तुम बनी रहीं कोमलांगी
तो उसके दिए निशानों को 
उसके गहनों तले छुपाए
गाती रहना शोकगीत
उसकी संस्कृति के उत्सवों में 
और देखना, तुम्हारी अपनी संस्कृति की कहानी
तुम्हारे आंसू, तुम पर हंसते हुए लिखेंगे

मृदुला शुक्ल की कविता एक दिन

मृदुला शुक्ला

एक दिन 

एक दिन जी उठेंगी
बलात्कार के बाद खुद को फूंक लेने वाली औरते
और वो भी जो भोगे जाने के बाद
लटका दी गयी थीं पेड़ों पर

उनमे भी जान पड़ जायेगी
जिन्हें भोगने के लिए तुम्हारा बल कम था
तुम्हे यकीन नहीं था खुद के अकेले पौरुष पर
तुम समूह बना कर टूटे थे
उस एक अकेली स्त्री पर

उन्हें भी जीना होगा जो मर गयी थी गिराते हुए
तुम्हारा अवैध गर्भ
शहर के किसी सरकारी अस्पताल में
कम उम्र और खून के कमी से

वे आदिवासी लडकियां
भी जी उठना चाहेंगी
जिन्हें सिर्फ इसलिए मार दिया गया
की वे चरा रही थी बकरियां
उनके हाथ में बन्दूक नहीं थी
मगर वे नक्सली करार दी गयी थी
बलात्कार के बाद

अपने वस्त्र और कौमार्य
संभालती ये स्त्रियाँ
खुद को मार लेती हैं ,अथवा मार दी जाती है
नग्न होते ही
भग्न होते ही कुंवारापन

ये औरतें जी उठेंगी समूह में
चौराहों पर चलेंगी
गर्दन झुकाए नहीं
सिर उठाये
उनकी आँखों में पानी नही
खून उत्रा हुआ होगा
आँचल वे ओढ़े ही नहीं होंगी
वे सब होंगी निर्वस्त्र

कुछ स्त्रियों के हाथ में होगा बैनर
जिस पर किसी अपराधी का चित्र नहीं
बने होंगे मानव लिंग

और सुनो
वे अपने हाथों में
मोमबत्तियां नहीं थामे होंगी
बल्कि वे संभाल कर लिए होंगी
अपने कटे हुए स्तन,क्षत विक्षत योनि
क्या तुम्हे ऐसी किसी कल्पना से सचमुच डर नहीं लगता
विकसित सभ्यता के आदिम लोगों !

सुमन केशरी की कविता बेटी

सुमन केशरी

बेटी

इतना डर है बिखरा हुआ कि
मन में आता है
तुम्हें बीज के अंतर्मन में
छिपे अंकुर-सा
अपने भीतर ही पालूँ
तब तक 
जब तक कि तुम पूर्ण पेड़ न हो जाओ 
पर फिर लगता है कि क्या तब तुम 
झेल सकोगी
धूप के ताए
हवा के थपेड़े
बिजली के गर्जन-तर्जन को
क्या जमा सकोगी अपने पाँव 
पृथ्वी पर मजबूती से..

डर डर कर भी
बिटिया
इतना तो जान चुकी हूँ
अपने दम पर कि
तुझे बीज की तरह
उगना पड़ेगा
अपने बूते ही
अपने हिस्से की धूप, हवा और नमी पर हक जमाते...

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