Sunday, 15 April 2018

कृष्णमोहन झा की कविता उसका डर

उसका डर

वह हमेशा अपने साथ
एक डर लाती है अपने घर।

वह स्कूल से लौटती है
तो उसके लहज़े में कीड़े की तरह दुबका होता है
एक डर
वह लौटती है सहेली के घर से
तो उसके रुमाल से डर की बू आती है
वह मंदिर से लौटती है
तो प्रसाद में मिलता है डर का स्वाद
दुकान से लौटते वक़्त
उसके जीरे की पुड़िया में
डर के कण मिले होते हैं...

वह कभी नहीं लौटती अकेली
हमेशा अपने साथ कुछ डर लाती है अपने घर।

वह एक डर लाती है
और कुछ बड़ी हो जाती है
वह लाती है कुछ और डर
होती है कुछ और बड़ी
वह एक साथ कई डर लाने लगती है अपने घर
और इसी तरह हो जाती है जवान

जो लड़की है जितनी जवान
उसके पास उतने ही डर हैं।

       *  *  *

'समय को चीरकर' (1998) संग्रह से

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