Friday 20 April 2018

राकेश रंजन की कविता सनहा

सनहा
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मेरा रूमाल कहीं छूट गया है
गुलाबी रूमाल
मेरे नाम के पहले अच्छर
कढ़े थे उस पर
छोटा था
पर छोटी चीज नहीं था हजूर
मेरा सनहा लिख लो

मेरा छाता कहीं छूट गया है
कुछ पुराना था पर ठीक था
सिर्फ एक कमानी खराब थी उसकी
जरा ऐसे खोलो
तो खुल जाता था
पिता की निशानी था हजूर

मेरी भाषा कहीं छूट गई है
आसमान में चिरैया जैसी भाषा
छौनों की खातिर
हँकरती गैया जैसी

मैं खो चुका मेहनत का पसीना
रात में परियों के किस्से
चौड़े पाटवाली नदी
मिट्टी का सीधा रास्ता
इससे पहले
कि यह भी छूट जाए
कि क्या छोड़ आया हूँ
लिख लो हजूर

सच कह रहा
बूटों ने कुचल दिया मेरा साहस
बाजार ने छीन लिया संघर्ष
प्रेत के पैरों में गिरा आया
अपनी संतान

मेरी मुट्ठी में राख है
आँखों में धुंध
साँसों में धुआँ
और पैरों में मांस के लोथड़े
मेरी स्मृति में मलबे की गाद
से सनी
वह लहूलुहान बच्ची है
जिसके हाथ में
उसकी माँ का हाथ है
एक कटा हुआ हाथ
जो हमले के बाद
उसके पास बचा रह गया है

सीरिया और गाजा और मोसुल
अब यही मेरी स्मृति
सामूहिक हत्याओं के दृश्य
और युद्ध
युद्धों के अंतहीन सिलसिले
अब यही मेरी नियति

अब यही मेरा शहर
आज जिसकी गलियों में हिंसक जुलूस
आज जिसके हाथों में नंगी तलवारें
आज जिसके सीने में नफरत की आग
बुद्ध की पीठ में छुरा घोंपनेवाला
मेरा शहर
पहले ऐसा नहीं था हजूर

अस्सी के दशक में
ईदगाह
और नवमी के मेले में नंगे पाँव घूमता
एक घूँट शरबत के लिए तरसता मेरा शहर
खून का प्यासा नहीं था आज की तरह
भागलपुर
और मेरठ की तरह
जहर नहीं था उसकी रगों में

अस्सी के दशक में
गंडक के हिलकोरों में सिहरता मेरा शहर
किसी बच्चे की तरह
नंगे पाँव
स्कूल जाता हुआ
और स्कूल से ठीक पहले
जलेबी के पेड़ की छाँव में
मिठास के सवाल को हल करता हुआ
वह शहर कहीं खो गया हजूर
मेरा सनहा लिख लो

मेरे चारों ओर
चीख ही चीख
विलाप ही विलाप

दंगाइयों ने
जब उस औरत के पेट को छलनी किया
आँतों के साथ
उसका बच्चा बाहर आ गया
खून से लथपथ
वह आँतों को समेटती और बच्चे को सँभालती
कहाँ तक भागती
कब तक बचती
वह गिरी
और खत्म हो गई
उसका कुछ भी नहीं बचा
सिर्फ उसके गिरने
और खत्म होने की परछाईं बची
साबरमती के जल में

साबरमती से गोमती तक
गंगा-यमुना से दजला-फरात तक
आदमी के गिरने
और खत्म होने की परछाइयाँ

बूचड़खाने में बदलता मेरा देश
जहाँ ठीहे ही ठीहे
खून ही खून
लोथड़े ही लोथड़े

सोलह दिसंबर दो हजार बारह की रात
संसद के दक्खिन में
जिस बच्ची को हवस के भेड़िए चींथते रहे
और आखिर में
उसके अंग में सरिया डालकर फेंक गए
अब वही बच्ची मेरी भारत माता
अब वही सरिया
मेरा राष्ट्र ध्वज

लिख लो हजूर
लिख लो!

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