सविता सिंह की बलात्कार विरोधी कविताएँ
1. ईश्वर और स्त्री
जागी हुई देह और आसमान एक दर्पण
देखता होगा ईश्वर भी स्त्री के हाहाकार को
बदलने के लिए होगा उत्सुक अपनी ही कल्पना को
कि बनाए नहीं उसने वे पुरुष अब तक
ले सकें जो उसे बाहों में
उनींदी आँखें बंद होने-होने को
खुलने के लिए तैयार मगर वे दरवाज़े
जिन्हें बचा रखा है अब तक रात ने
लहराता अन्धकार मिल जाने देता है
अपने तम में एक और तम को
सारी वासना को जैसे स्त्री हो
चंद्रमा खिला रहता है आसमान में रात भर
सिमटा एक कोने में सब कुछ देखता सोचता
बदलेगा यह संसार अब स्त्री की कामना से ही
ईश्वर की नहीं इसमें अब कोई भूमिका
2. शिल्पी ने कहा
मरने के बाद जागकर शिल्पी ने
अपने बलात्कारियों से कहा
‘तुम सबने सिर्फ़ मेरा शरीर नष्ट किया है
मुझे नहीं’
मैं जीवित रहूँगी सदा प्रेम करने वालों की यादों में
दुःख बनकर
पिता के कलेजे में प्रतिशोध बनकर
बहन के मन में डर की तरह
माँ की आँखों में आँसू होकर
आक्रोश बनकर
लाखों करोड़ों दूसरी लड़कियों के हौसलों में
वैसे भी नहीं बच सकता ज्यादा दिन बलात्कारी
हर जगह रोती कलपती स्त्रियाँ उठा रही हैं अस्त्र
3. संपत्ति यह पृथ्वी
यहां तो सब कुछ तुम्हारी संपत्ति है
पूरी पृथ्वी ही है निशाने पर तुम्हारे
तुम्हारी तृष्णा से कुछ भी बचा नहीं रहेगा एक दिन
सब कुछ पर होगा तुम्हारा आधिपत्य
छोटी से छोटी भावना पर निर्मम क्रूर दृष्टि तुम्हारी
जानवरों से लेकर मनुष्यों तक
सब पर अधिकार है वैसे भी तुम्हारा
तुम्हारे बच्चे तुम्हारी संपत्ति हैं
तुम उन्हें किसी और तरह से जानते भी नहीं
पत्नियों के स्वामी तो अनंतकाल से रहे हो तुम
मगर बच्चे इस धरती के होते हैं जैसे हम तुम स्वयं भी
प्रकृति जिन्हें सींचती है अपनी नम आँखों से
अपनी हवा से बनाती है जिनके मन
अपनी बारिशों से पैदा करती है वासना
इस जीवन के लिए
अपने हरे लाल पीली बैगनी अनगिनत दूसरे रंगों से
गढ़ती है उनके अपने रंग
और अब तो उसके पास एक दूसरी कल्पना भी है
तुम्हारे स्वामित्य से उबरने की
जैसे है अब स्त्री की भी एक अपनी कल्पना
जबरन प्रेम और मोह की गिरफ्त से
छूट कर इस संसार में जीने की
यहां सब कुछ तुम्हारी संपत्ति नहीं
कुछ इस तरह सोचकर देखो
कितनी आबाध दिखेगी तुम्हें अपनी ही स्वायत्तता
4. अपूर्ण समय
यह एक समय है
बीत जाने वाला
हो चाहे इसका रंग अभी कितना ही गाढ़ा
दहशत चाहे जितनी मारक
एक भीत ही है आखिर रेत की
भुरभुरा जाएगा
कितनी बौखलाहट में दौड़ रही है अभी से हवा
कि पीछे-पीछे चली आती है एक दूसरी कम बौखलाई नहीं
चीरती हुई बाहर का दृश्य
हमारी आँखों को जो ढापे हुए है
लोग शब्दहीन होते जा रहे हैं
हाथों से पकड़े अपनी चुप्पियां
बेटियां जो कल तक खेलती थीं अपने आंगनों दालानों में
पेड़ों की शाखाओं से लटकाई गयी है
हों जैसे कागज की गुड़िया
किसी दुःस्वप्न की कतरनें या कि
फटा हुआ उसका कोई हिस्सा
यह समय यूं ही नहीं रह सकता आखिर
उतारी जाएंगी ये बच्चियां हत्यारी इन शाखाओं से
चिन्हित किए जाएंगे हत्यारे
नहीं आज तो बाद आज के
हिसाब-किताब बराबर होगा
धूलभरी आंधी उठेगी कहीं से
अनगिनत उन आँखों को सचमुच पत्थर बनाती
जिन्होंने देखी ये हत्याएँ और चुप रहीं
सोचकर ये थीं दलितों की बेटियां
सविता सिंह
(सविता सिंह इग्नू के स्त्री अध्ययन केंद्र में प्राध्यापिका हैं, समकालीन हिंदी विमर्श और कविता की प्रमुख हस्ताक्षर)
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