Wednesday, 25 April 2018

आवेश तिवारी की कविता सुनो श्वेताम्बरा


सुनो श्वेताम्बरा
सुनो ! क्यूंकि इन अनगिनत चुप्पियों के बीच कुछ भी कहना साँसों के आने जाने जैसा है
और कुछ भी सुनना यह बताता है कि अभी भी आसमान का रंग नीला है
पानी रंगहीन हैं, जमीन हरी है
और मुक्ति केवल एक शब्द भर है |
सुनो, क्यूंकि ये आँखें दिन रात उदासियों के नए ठिकाने ढूंढती है
वो ढूंढती हैं पीली पत्तियां ,कपास की खेती कर रहे किसानों के खुरदुरे हाथों जैसी पेड़ों की टहनियां 
या फिर धूल उड़ाती वो सिरफिरी सी सड़कें,जिन पर आजकल परछाइयों की भीड़ है

हाँ श्वेताम्बरा ,मेरी आँखों को सुकून देता है डूबता हुआ सूरज और दिल को सूकून देती है अँधेरे से भी काली रात
सुनो ,क्यूंकि अभी भी बची है थोड़ी सी आंच
जिससे लिपटकर गुजारी जा सकती है ठंडी सी इस उम्र में कोई ठिठुरती हुई सुबह
सुनो श्वेताम्बरा
सुनो ,क्यूंकि तुम्हारी उदास रातों में ख़्वाबों का शामियाना सूना पड़ा है
इस शामियाने में न तो कोई सतरंगी चिड़िया अपना घोसला सजाती है
न ही इसमें स्मृतियों के बंदनवार सजे हैं |
सुनो ,क्यूंकि शाम ढले घर लौटने वाला मल्लाह गरम पहाड़ों के गीत भूल चूका है
सुनो ,क्यूंकि हर एक पल बीता हुआ पल है ,हर एक रात खोई हुई रात
हर सुबह खोई हुई सुबह
तुम सुनो यह इसलिए भी जरुरी है क्यूंकि तुम्हे कहना भी है
तुम्हे रहना भी है, तुम्हे सहना भी है |

-आवेश
(जब एक मौसम कविताओं का भी होता था )

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सुनो श्वेताम्बरा
बेमौसम की मोहब्बत सर्दियों में ही दम तोडती है
सर्द सुबह में ही कहानियाँ लिखता है अलाव
गीली हो जाती है कविता |
तुम तो जानती हो न ?
जनवरी का महीना  जब तक बसंत की आहट को सुने
सूरज के  दरवाजे  पर हम बदहवासों की  दस्तक ख़त्म हो जाती है |
पत्तियों की ख़ामोशी पर पेड़ शर्मिंदा है
और  मैं एक  किसान की तरह  सहमा हुआ हूँ
ऐसा इसलिए हैं
क्योंकि मैं  तुम्हे फसल की तरह प्यार करता था |
इस बीच
सर्द रातों  में स्मृतियों का काफिला जिन जिन चौराहों से आगे बढ़ता है
फिलहाल वहां कोहरे की अकुलाहट को कम करने के लिए  बारिश हो रही है
सिगरेट का  कश किसी स्ट्रीट लैम्प सा रास्ता तो दिखाता है ,लेकिन इस बार धुंआ ज्यादा है
वक्त लगेगा उन्हें सरहद तक पहुँचने में |

सुनो श्वेताम्बरा
तुम्हारा न होना इस मौसम को दिया गया एक  जवाब है
जिसकी नजीर देकर लोग मोहब्बत के लिए नए मौसमों का इन्तजार करेंगे |
वो जब फूलों को छुएंगे तो उनमे उन्हें कविता नहीं रंग नजर आएगा
वो सूरज की धूप को विजय और चाँद रात को आसमान का उपहार समझेंगे
वो नहीं करेंगे मुकाबला पश्चिम से आने वाली हवाओं का किसी रंगीन दुपट्टे से
उनके होठों पर खुश्की नहीं होगी
न ही उन्हें अपनी हथेलियों को गरम रखने के लिए किसी के जेबों की जरुरत होगी |
वो नहीं जायेंगे शिमला ,मनाली ,नैनीताल
उन्होंने नहीं देखा होगा सर्दियों में बरफ के पहाड़ों को
इस मौसम में
उन्हें विदर्भ की याद आएगी
उन्हें याद आयेंगे अजंता में सोये हुए बुद्ध
वो प्रेम गीत की जगह कर्म गीत गायेंगे
वो उन चीजों को करेंगे
जिससे उनके मोहब्बत में न होने की बात तस्दीक हो
वो उन चीजों को भी करेंगे
जिनसे फिर से न लिखी जा सके ऐसी कोई कविता|

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