Wednesday, 11 April 2018

चंद्रकला त्रिपाठी की कविता औरतें

औरतें
पतियों पिताओं भाइयों के हिस्सों में बटी औरतें
प्रतिहिंसा का रास्ता नहीं चुनती
ढ़ेर सारी नफरत और हत्या का भी

अपने बल की नुमाइश नहीं करतीं कि
औरताना होने का बुरा भी नहीं मानती
अपने बोलने का इंतजार करती हैं
चुप कराए जाने का बुरा नहीं मानती

पहाड़ उठा लेती हैं
बोझ फटकती हैं
दाने पकाती हैं
कोख संभालती हैं
कितने बियाबान बसा चुकी हैं अहसान जताए बिना

अपनी जात को सिखाने में कोताही नहीं करती कि
ये पिता हैं वो बाबा नाना
वो पड़ोस के चाचाजी
वो मामा ऐसा कि सांप को भी मामा कह दो तो सारा विष उतार कर रख दे
वो सगा बेसगा भाई
भाई का दोस्त भी भाई
इतना सारा सगापन जुटाती संभालती हैं औरतें कि
रात बिरात ऊंचे खाले सगे ही मिलें
बेदाग पार लगा दें जीवन

सारे रिश्तों में खुद को देहभर समझी जाने वाली नृशंसता
वे समझ कर भी नहीं समझना चाहतीं

पाप अपनी देह का हश्र समझती आईं वे और
यही चेताती आईं बेटियों बहनों को
दो कौड़ी की नहीं रहोगी तुम और उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा क्योंकि
जमाना उनका है
कोने कतरे में लुकाई
जीने में कोई आवाज़ नहीं करती ये औरतें
पृथ्वी पर छोड़ चुकी हैं बर्बरता के लिए पूरी जगह

ख़त्म हुई पृथ्वी पर स्त्री के लिए पारिवारिकता ?
अब तो ईश्वर का घर भी
हत्या और बलात्कार की जगह हुआ

क्या तय करना है स्त्री
बांझ हो जाना
दूध की जगह ज़हर की घुट्टी पिला देना

पता नहीं क्या करने से इस जघन्यता का जवाब बनेगा मगर जब भी बनेगा सिर्फ
तुम्हारे बल पर बनेगा
समझी
तुम जो रोज़
धरती भर चलती हो
आसमान भर आजादी भी जोड़ लो

चंद्रकला त्रिपाठी

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