छोटी
कपड़े की छोटी सी दुकान थी
तीन बेटियों का पिता था
फिर भी चेहरे पर मुस्कान थी
तीनो को ख़ूब पढ़ाया,
ख़ुद की फटी क़मीज़ थी ,
फिर भी उनको क़ाबिल बनाया
पाई पाई पैसा पिता ने जोड़ा था
तीनो बेटी का ब्याह रचाना था
पिता होने का धर्म जो निभाना था
अचानक क़िस्मत ने करवट लिया
पिता को एक बड़ा झटका दिया
अब तीन नहीं, दो ही बेटी की शादी होगी
एक दिन दरिंदो की नज़र छोटी पर पड़ी
ख़ूब भागी लेकिन सब व्यर्थ हो गया
अचानक इज़्ज़त, आबरू सब खो गया
छोटी की इज़्ज़त के टुकड़े टुकड़े कर दिए
जीवन में नए ज़ख़्म पैदा कर दिए
मानो उस मासूम चिड़िया के पंख क़तर दिए
अब तीन नहीं, दो ही कन्यादान होगा
मानवता का पल पल अपमान होगा
अब कैसे नारी में आत्मसम्मान होगा?
छोटी बस चीख़ती रह गयी
मुझे जीने दो, मैं जीना चाहती हूँ
मुझे जीने दो, मैं खिलना चाहती हूँ
जैनेंद्र पारख · MAY 13, 2017
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