Tuesday 24 April 2018

युवा कवि अरुणाभ सौरभ की कविता वो स्साला बिहारी

वो स्साला बिहारी
अबे तेरी…
और कॉलर पकड़
तीन-चार
जड़ दिए जाते हैं
मुंह पर

इतने से नहीं तो
बिहारी मादर…
चोर, चीलड़, पॉकेटमार
भौंसड़ी के…

सुबह हो गई
चाय ला
तेरी भैण की
झाडू-पोछा
तेरी मां लगाएगी?

जब भी मैं
अपने लोगों के बीच से
गुजरता हूं
रोजाना सुनने को मिलती हैं
कानों को हिला देने वाली गालियां
उनके लिए जो

हर ट्रेन के
जनरल डब्बे में
हुजूम बनाकर चढ़े थे
भागलपुर, मुजफ्फरपुर
दरभंगा, सहरसा, कटिहार से
सभी स्टेशनों पर
दिल्ली, मुंबई, सूरत, अमृतसर, कोलकाता, गुवाहाटी
जाने वाली सभी ट्रेनों में
अपना गांव, अपना देस छोड़कर
निकला था वो
मैले-कुचैले एयरबैग लेकर
दो वक़्त की रोटी पर
एक चुटकी नमक
दो बूंद सरसों तेल
आधा प्याज के खातिर
जो गांव में मिला नहीं
कटिहार से पटना तक
नहीं मिला

और जब निकल गया वहां से, तो
शौचालय के गेट पर
गमछा बिछाकर बैठ गया
और गंतव्य तक
पहुंचने के बाद
भूल गया कि
वो कहां है, कहां का है
सीखनी शुरू कर दी
हर शहर की भाषा
पर स्साला बिहारी
मुंह खोलते ही
लोगों को पता लग जाता है

देश के सभी बड़े शहरों में
वो झाडू लगता रहा
बरतन मांजता रहा
रिक्शा खींचता रहा
ठेला चलाता रहा
संडास को हटाता रहा
मैला ढोता रहा
हर ग़म को
चिलम की सोंट पर
और खैनी के ताव पर
भूलकर, वह
बीड़ी पर बीड़ी जलाता रहा

गांव पहुंचने पर भी
अभ्यास किया
तेरे को, मेरे को…
पर हर जगह जो मिला
सहर्ष स्वीकार किया
झाडू, कंटर, बरतन
रिक्शा, ठेला और गालियां
और लात-घूसे
और उतने पैसे, कि
वो, उसका परिवार
और उसकी बीड़ी, खैनी
चलते रहे

अपने टपकते पसीने में सीमेंट-बालू सानकर
उसने कलकत्ता बनाया था
अपने खून में चारकोल सानकर
उसने बनाए थे दिल्ली तक जाने वाले सारे
राष्ट्रीय राजमार्ग

वज्र जैसी हड्डियों की ताकत से
उसने खड़ी की थीं
बम्बई की सारी ईमारतें
फेफड़े में घुसे जा रहे रुई के रेशे से
खांसते-खांसते दम ले-लेकर
उसने खड़ा किया था सूरत

कितनी रातों भूख से जाग-जाग
रैनबसेरा पर उसने सपने देखे थे
लुधियाना, चंडीगढ़, हिसार से लेकर
जमशेदपुर, रांची, बिलासपुर, दुर्गापुर, राउरकेला
और रुड़की, बंगलौर तक को
संवारने, निखारने के
अपनी आह के दम पर
उसने कितने
मद्रास को चेन्नैई
बंबई को मुंबई
होते देखा था
उसे पता था कि
उसके बिना जाम ही जाती हैं
हैदराबाद से लेकर शिलांग तक की सारी नालियां

कितने पंजाब, कितने हरियाणा और
मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ की खरीफ से लेकर रबी फसलें
उसी के हाथों काटी जाएंगी
फायदा चाहे जिसका भी हो

धूप ने
उसकी चमड़ी पर आकर
कविता लिखी थी
पसीने ने उसकी गंदी कमीज पर
अल्पना बनाई थी

रंगोली सजाई थी
कुदाल ने उसकी किस्मत पर
अभी अभी सितारे जड़े थे
रिक्शे ने अरमान जगाया था
कि अचानक उसकी बीवी चूड़ी तोड़ देती है
सिन्दूर पोंछ लेती है
कि ठेला पकड़े हुए हाथ
अभी भी ठेला पकड़े हुए हैं
और गर्दन पर
खून का थक्का जम गया है
वो स्साला बिहारी
कट गया है, गाजर मूली की तरह सामूहिक
बंबई या गुवाहाटी में
और बीवियां चूड़ी तोड़ रही हैं
लेकिन साला जबतक जिंदा रहा
जानता था कि
इस देश के
हिंदू समाज के लिए
जितना संदेहास्पद है
मुसलमान का होना
उससे ज्यादा अभिशाप है
भारत में बिहारी

साला यह भी जानता था कि
बिहारी होना मतलब दिन रात
खटते मजूरी करना है जी-जान से
उसे मालूम था कि कहीं
पकड़ा जाय झूठ-मूठ चोरी-चपारी के आरोप में तो
नहीं बचाएंगे उसे जिला-जवार के अफसर
बिहारी का मतलब वो जानता था कि
अफसर, मंत्री, महाजन होना नहीं है

बिहारी का मतलब
फावड़ा चलाना है
पत्थर तोड़ना है
गटर साफ़ करना है
दरबानी करना है
चौकीदारी करना है

आवाज में निरंतरता है–
ओय बिहारी
तेरी मां की
तेज-तेज फावड़ा चला
निठल्ले
यूपी बिहार के चूतिये
तेरी भैण की
तेरी मां की…

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