Friday 13 April 2018

बलात्कार के विरुद्ध हर्षिका गंगवार की कविता

जब तेरी उँगलियाँ
उस नन्हें जिस्म पर थिरक रही होंगी
और उसकी सिसकियाँ सुबक-सुबक कर
सिसकियाँ ले रहीं होंगी
तो क्या तेरी प्यास
उस कच्चे घड़े के भीतर
नन्हें-नन्हें पत्थर डालकर
उसके दर्द से बुझ गयी होगी

या उसके बाद भी तूने
उस कच्चे घड़े के जिस्म पर
जोर-जोर से थपथपाकर
बेरहमी से उुलट-पुलटकर
बिना रूके,
उसकी उखड़ती साँसो को
अपने होठों से नोंचकर
उसकी साँसों का गला घोंट दिया होगा
और न जाने तूने
बिना खंजर के
उसके ज़हन में कितने छेद किये होंगे।

तुझे तो याद भी नहीं होगा
कि तूने जब पहली बार
एक हाथ उसकी कमर पर
और दूसरा
उसके बालों में धँसाया होगा
तो उस नादान ने बिलखती आवाज़ में
न जाने क्या-क्या चिल्लाया होगा
"'पापा'...बचाओ मुझे "
ये कहा होगा
या
"'भैया' ..छोड़ दो मुझे...बहुत दर्द होता है"
ये चिल्लाया होगा
या रोते-रोते वो गुड़िया
किसी गुड़िया की तरह ही
एक कोने में
लाल रंग लपेटे अचेत पड़ी रही होगी
बिना आँचल के
बिना सूट सलवार के
'बिल्कुल नग्न'
सभ्यता की गुड़िया के जिस्म से
मासूमियत का पर्दा नोंचते हुये।

खैर ..
ये लिहाज़ शर्म की हदें
ज़रा ऊँची हैं
और तेरी नियत बहुत छोटी।
जो हर बार हवस की गिरफ्त में
बहन और बेटी को
बस एक 'लड़की' बना देती है।
और तुझे 'बलात्कारी'।

:हर्षिका

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