Saturday 21 April 2018

मृदुला शुक्ल की कविता एक दिन

मृदुला शुक्ला

एक दिन 

एक दिन जी उठेंगी
बलात्कार के बाद खुद को फूंक लेने वाली औरते
और वो भी जो भोगे जाने के बाद
लटका दी गयी थीं पेड़ों पर

उनमे भी जान पड़ जायेगी
जिन्हें भोगने के लिए तुम्हारा बल कम था
तुम्हे यकीन नहीं था खुद के अकेले पौरुष पर
तुम समूह बना कर टूटे थे
उस एक अकेली स्त्री पर

उन्हें भी जीना होगा जो मर गयी थी गिराते हुए
तुम्हारा अवैध गर्भ
शहर के किसी सरकारी अस्पताल में
कम उम्र और खून के कमी से

वे आदिवासी लडकियां
भी जी उठना चाहेंगी
जिन्हें सिर्फ इसलिए मार दिया गया
की वे चरा रही थी बकरियां
उनके हाथ में बन्दूक नहीं थी
मगर वे नक्सली करार दी गयी थी
बलात्कार के बाद

अपने वस्त्र और कौमार्य
संभालती ये स्त्रियाँ
खुद को मार लेती हैं ,अथवा मार दी जाती है
नग्न होते ही
भग्न होते ही कुंवारापन

ये औरतें जी उठेंगी समूह में
चौराहों पर चलेंगी
गर्दन झुकाए नहीं
सिर उठाये
उनकी आँखों में पानी नही
खून उत्रा हुआ होगा
आँचल वे ओढ़े ही नहीं होंगी
वे सब होंगी निर्वस्त्र

कुछ स्त्रियों के हाथ में होगा बैनर
जिस पर किसी अपराधी का चित्र नहीं
बने होंगे मानव लिंग

और सुनो
वे अपने हाथों में
मोमबत्तियां नहीं थामे होंगी
बल्कि वे संभाल कर लिए होंगी
अपने कटे हुए स्तन,क्षत विक्षत योनि
क्या तुम्हे ऐसी किसी कल्पना से सचमुच डर नहीं लगता
विकसित सभ्यता के आदिम लोगों !

No comments:

Post a Comment

Featured post

कथाचोर का इकबालिया बयान: अखिलेश सिंह

कथाचोर का इकबालिया बयान _________ कहानियों की चोरी पकड़ी जाने पर लेखिका ने सार्वजनिक अपील की :  जब मैं कहानियां चुराती थी तो मैं अवसाद में थ...