Monday 16 April 2018

चंद्रकला त्रिपाठी की कविता आसिफा

बकरियां चराने जंगल में निकल जाती थी
नन्हें नन्हें पैरों से थिरकती चलती होगी वह आसिफा
पत्तों से खेलती इतराती जंगल से नहीं डरती थी वह
छलांगें लगा कर ऊची शाखों  से लटक झूलती थी वह
आठ साल की वह उम्र
जो मासूम निर्भय और विश्वासी होती है
वे दोनों बेरहम जब उसकी घोड़ी ढूंढने के छल से उसे घेर रहे थे
तब सचमुच डर गई थी वह बच्ची
स्तब्ध था जंगल जहां से उसे दरिंदगी के लिए उठा लिया गया था
मुंह में उड़ेल दी गई थी बेहोशी की दवा
हैवानों की जांघ के नीचे उसकी छटपटाहट को महसूस करो
महसूस करो इस तरह जैसे वहां तुम्हारी बच्ची थी
महसूस नहीं करोगे तो सब भूल जाओगे
भूल जाओगे कि दरिंदों को कोई डर नहीं था क्यो कि सुशासन
भगवान और वकील
सब उनके साथ थे
कुछ लेखक लेखिकाएं भी
उसे मृत्यु तक रौंदा गया
पत्थर पर पटका गया
कितना जबर था उसका जीना कि
बार बार कुचलने पर उसका खत्म होना
बर्बरों को महसूस नहीं हुआ
खूनसनी उसकी चिथी फटी देह
ओह मैंने आजतक इतना भयानक कभी नहीं लिखा
यह लिख रही हूं कि आसिफा
तुम्हारी यातनाएं
पुरानी खबर में ओझल न हों
हम सब सुरक्षित  ठीहों में बसे मां बाप
उस चीख को अपने कलेजे में धंसा लें
हमें चाहिए उन दरिंदों की उससे बहुत ज्यादा भयानक मौत
उससे कम कुछ नहीं
बहुत निहत्थे हुए हैं वे
जिन्हें विश्वास था कि भगवान सब देख रहा है

चंद्रकला त्रिपाठी

*प्रो चंद्रकला त्रिपाठी महिला महाविद्यालय बीएचयू में हिन्दी विषय की प्रोफेसर हैं, कवयित्री हैं साथ ही स्त्री विमर्श पर गहरी पकड़ रखती हैं। 
चंद्रकला त्रिपाठी

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