प्यारी बेटियो!
अब तुमको आसान नही रह गया बचना
भेड़ियों, कुत्तों और भालुओं
गिद्धों और कव्वों से
इन आंखों के सामने ही
नोंच डालते हैं नाज़ुक अंग
लपलपाती जीभ और आंखों की क्रूरता के बीच
कितना बेमानी लगता है
इस बेरहम समय के माथे पर चिपका *बेटी बचाओ* स्लोगन
मां ,बाप,भाई
जब भी चाहते हैं बचाना
इंशानियत को तार-तार करते दरिंदों से
हाथ धोना पड़ता है उन्हें
तब अपने ही जीवन से
कहीं कुछ भी सुरक्षित नहीं सिवाय आदमखोर आदमियों के
जिन्हें रक्षक होना था
वहीं तेरे जीवन और अस्मिता के भक्षक
और लुटेरे बने हैं
आगे नाथ न पीछे पगाह की तरह
बेपरवाह घूम रहे हैं
जो चाहते हैं बक देते हैं
इस बदलती मर्दवादी मानसिक और सामाजिक परिदृश्य के बीच
तुम्हारा पैदा होना ही सबसे बड़ी त्रासदी है बेटियो!
जिन्हें बोलना चाहिए वे सब गूंगे-बहरे बने बैठे हैं
हम कितना चाहे ढोल पीटे कि तुम
पुरुष वर्चस्व को तोड़कर
उड़ो मुक्त गगन में
पर शातिर बाजों के ख़ूनी पंजे
तुम्हारे पंखों को नोचने पर हरदम उतारू रहते हैं
इस आब-ओ-हवा में तुम्हारे सांस लेने से
आत्मग्लानि से भरा इतना डर गया हूँ कि
कायरता की सब हदें पार कर चुका हूं बेटी!
एक कवि कर भी क्या सकता है सिर्फ,
भाषा बदलने के
विचार बदलने के
शब्द बदलने के
प्रतिरोध करने के
परन्तु कविता से दुनिया कतई नहीं बदल सकता है
तुम्हारे पैदा होने के डर से ही
यह धरती बेबस और लाचार बनी कांप रही है
तुम्हारे कोमल कदमों की थाप से हवा हांफ रही है
पेड़ों का कलेजा थरथरा रहा है
आसमान का चेहरा फीका पड़ रहा है
मां की कोख में हीं नहीं
दरिंदों से भरी
इस धरती के किसी भी कोने में
तुम सुरक्षित नहीं हो बेटी!
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