ओ हत्यारों
ओ हत्यारों तुम दावा करते हो पूजने की देवियां
पर ख़ौफ नहीं खाते उन्हें बलत्कृत करने में
ख़ौफ खाओ कि वे उछाल फेंकेगी तुम्हारे
पूजा के सजे थाल और हवन सामग्रीयां
वे डाल देंगी धधकते हवन कुंडों में पानी
वे इनकार कर देंगी तुम्हारे घरों में पैदा होने से
बंजर हो जायेंगी तुम्हारी जमीनें
दूब तक नहीं उगेगी तुम्हारे दरवाजों पर
तुम्हारा देवता चला जाएगा छोड़ कर
तुम्हारे भव्य देवालयों को
उसकी नजरें झुकी होंगी शर्म से
तुम्हारे गुनाहों को साफ करने में
असमर्थ होंगे उसके धवल वस्त्र
ओ हत्यारों शर्म करो कि तुम्हारे कारण
भूल जायेंगी कई पीढ़ियां दया भाव तक
शर्म करो कि तुमने पैदा कर दिए हैं
हर एक दिल में तमाम शक और शुब्हे
ओ हत्यारों ख़ौफ खाओ कि जिस धर्म को
बचाने में तुमने खो दिए मनुष्य के सभी गुण
उन धर्मों को उखाड़ फेंकेंगी वे
तुम्हारा ध, तुम्हारा र् , तुम्हारा म
पड़ा मिलेगा अलग अलग कहीं नालियों में
ओ हत्यारों ख़ौफ खाओ कि याद किये जाओगे
तुम हमेशा एक शर्म और गुनाह की तरह
मानवी सभ्यता के इतिहास में।
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पम्मी राय
Saturday, 14 April 2018
बलात्कार के विरुद्ध पम्मी राय की कविता
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