Saturday 21 April 2018

अरुण शीतांश की कविता आबरू नागरिक की

आबरू नागरिक की
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ओ नागरिको!
अब जाओ, सो जाओ
कल आना
सड़क पर

आने की जरुरत क्यों -
धान के खेत में बच्ची गई है
किसान का खाना लेकर
फैक्टरी में कामग़ार का भोजन
कैटवाक करती कोई बच्ची ही तो है
घास काटती
सुई में धागा लगाती
स्कूल पढ़ने जाती
सड़क पार करती
छत पर खिलखिलाती

नागरिक पर बच्ची को यक़ीन नहीं
यक़ीन  का विश्वविद्यालय कहाँ है बहन?

जहाँ से यात्रा शुरु ही हुई थी
वहीं नागरिक ख़त्म करने को तत्पर है

हम नागरिक का विरोध करते हैं
उस बच्ची के कपड़े कौन सिलेगा
जो रोज़ फाड़ रहा है
चर्र.....  चर्र.....  चर्र..... ?

अपने अन्दर की आवाज सुनो
कोई  नहीं है
पृथ्वी पर
कोई नहीं है देश

मिट्टी कितनी मुलायम और कितनी कठोर है
उन्हें पता नहीं  कि मिट्टी में भी आग होती है
और धरती के नीचे तो ज़ख़ीरा ही है।

एक बेटी का बाप नहीं हूँ
हजारों बेटियां हैं 
हजारों माँएं  हैं
हज़ारों बहनें हैं
और हजारों समाचार वाचिकाएँ  हैं
सब हमारे साथ हैं

लो मशाल और उठा लो इसे
हजारों आँखें देख रहीं हैं
तुम्हें बारंबार।

नागरिक नंगा है
और पक रहा ईंट का भट्ठा  है
यहाँ-वहाँ पत्थर ही पत्थर  है
छू लो
और  चला दो वहाँ
जहाँ तुम्हें इच्छा हो...

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