Friday 13 April 2018

अरमान आनंद की कविता कील

( कील )

दिखती है
कुर्सी की वही कील
जो कपड़े फाड़ देती है।
वर्ना
कुर्सी में धँसी होती हैं चुपचाप कई कीलें
जो
जो कुर्सी को कुर्सी बनाती है।

कुर्सी पर बैठने वाले
मजदूरों के हाथ
और हथौड़ों का इस्तेमाल
इन्हीं कीलों को दबाने के लिए करते हैं।

अरमान आनंद

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