Wednesday 25 April 2018

फिलिस्तीन के कवि ताहा मुहम्मद अली की कविता

कभी-कभी... कामना करता हूँ
कि किसी द्वंद्व युद्ध में मिल पाता मैं
उस शख्स से जिसने मारा था मेरे पिता को
और बर्बाद कर दिया था घर हमारा,
मुझे निर्वासित करते हुए
एक संकरे से देश में.
और अगर वह मार देता है मुझे
तो मुझे चैन मिलेगा आखिरकार
और अगर तैयार हुआ मैं
तो बदला ले लूंगा अपना!

किन्तु मेरे प्रतिद्वंद्वी के नजर आने पर
यदि यह पता चला
कि उसकी एक माँ है
उसका इंतज़ार करती हुई,
या एक पिता
जो अपना दाहिना हाथ
रख लेते हैं अपने सीने पर दिल की जगह के ऊपर
जब कभी देर हो जाती है उनके बेटे को
मुलाक़ात के तयशुदा वक़्त से
आधे घंटे की देरी पर भी --
तो मैं उसे नहीं मारूंगा,
भले ही मौक़ा रहे मेरे पास. 

इसी तरह... मैं
तब भी क़त्ल नहीं करूंगा उसका
यदि समय रहते पता चल गया
कि उसका एक भाई है और बहनें
जो प्रेम करते हैं उससे और हमेशा
उसे देखने की हसरत रहती है उनके दिल में.
या एक बीबी है उसकी, उसका स्वागत करने के लिए
और बच्चे, जो
सह नहीं सकते उसकी जुदाई
और जिन्हें रोमांचित कर देते हैं उसके तोहफे.

या फिर, उसके
यार-दोस्त हैं, 
उसके परिचित पड़ोसी
कैदखाने या किसी अस्पताल के कमरे
के उसके साथी,
या स्कूल के उसके सहपाठी...
उसे पूछने वाले
या सम्मान देने वाले उसे.

मगर यदि
कोई न निकला उसके आगे-पीछे --
पेड़ से कटी किसी डाली की तरह --
बिना माँ-बाप के,
न भाई, न बहन, 
बिना बीबी-बच्चों के,
किसी रिश्तेदार, पड़ोसी या दोस्त
संगी-सहकर्मी के बिना,
तो उसके कष्ट में मैं कोई इजाफा नहीं करूंगा
कुछ नहीं जोड़ूंगा उस अकेलेपन में --
न तो मृत्यु का संताप,
न ही गुजर जाने का गम.
बल्कि संयत रहूँगा
उसे नजरअंदाज करते हुए
जब उसकी बगल से गुजरूँगा सड़क पर --
क्योंकि समझा लिया है मैंने खुद को
कि उसकी तरफ ध्यान न देना
एक तरह का बदला ही है अपने आप में

- ताहा मुहम्मद अली ( फिलिस्तीन )
अनुवाद - मनोज पटेल

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