Saturday 21 April 2018

डॉ. ए. दीप की कविता - अगले गैंगरेप पर अगली कविता लिखने तक

कविता

अगले गैंगरेप पर अगली कविता लिखने तक

किसी ने तुम्हें वेदना कहा
किसी को तुम दामिनी दिखी
किसी ने निर्भया कहकर पुकारा
और तकनीकी शब्दावली में
गैंगरेप-पीड़िता थीं तुम…
जो भी नाम हो तुम्हारा
नमन करता हूँ तुम्हें
कि तुम जागी रहीं तब तक
जब तक बारी-बारी से
सो नहीं गए
तमाम अंग तुम्हारे।

आत्मा का आवरण ही नहीं
आत्मा भी लहूलुहान थी तुम्हारी
फिर भी
पूरे तेरह दिनों तक
तुम जीवित बैठी रहीं चिता पर
सोई नहीं
हमारे जागने से पहले।

मलाला का मलाल
अभी साल ही रहा था
कि जाना
छह-छह पशुओं ने मिलकर
बनाया तुम्हें शिकार
अपनी हवस का…
आज मैं लज्जित हूँ
अपने पुरुष होने पर
कि वे सारे पशु
पुरुष जाति के थे।

तुम निढ़ाल
नंगी पड़ी रहीं
सड़क के किनारे
पर कृष्ण के इस देश ने
देर कर दी
दो गज कपड़ा तक जुटाने में…
बस में उन पशुओं ने
जो तुम्हारे शरीर के साथ किया
वही दुष्कर्म करते रहे
तुम्हारे अस्तित्व के साथ
वहाँ से गुजरने वाले
न जाने कितने पिता, पुत्र, पति और भाई…
लज्जित हूँ
कि उन पशुओं के साथ-साथ
ये भी पुरुष जाति के थे।

यकीन मानो
उस दिन से आज तक
नजरें चुरा रहा हूँ
अपनी दो साल की बेटी से
और हो जाता हूँ कुंठित
जाकर पास पत्नी के
कि मैं
पुरुष जाति का हूँ।

तुम्हीं बताओ
अब कैसे करूँ पाठ
दुर्गा सप्तशती का
कैसे चढ़ाऊँ जल
पवित्र तुलसी को
कैसे दूँ बहन को
रक्षा का वचन
और कैसे दबाऊँ पैर
अपनी माँ के
कि मैं पुरुष जाति का हूँ।

लज्जित हूँ
कि पकड़े गए केवल वही छह
और बाहर हैं उनकी जाति के
बाकी हम सारे पशु।

लज्जित हूँ
कि हमारी सभ्यता के
हजारों साल होने को आए
पर हम अदद पशुता को भी
जीत नहीं पाए।

लज्जित हूँ
कि अब भी वीर्य बहता है
हमारे भीतर
और आदम की भूमिका
अब भी निभाएगा
आदमी ही।

लज्जित हूँ
कि तुम्हारे जगाने के बाद
जागकर ये कविता तो लिख दी…
अब शायद बैठ जाऊँगा
अगले गैंगरेप पर
अगली कविता लिखने तक।

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