Saturday, 28 April 2018

निलय उपाध्याय की किसान कविता बेदखल

बेदखल
मैं एक किसान हूँ
अपनी रोजी नहीं कमा सकता इस गाँव में
मुझे देख बिसूरने लगते हैं मेरे खेत
मेरा हँसुआ
मेरी खुरपी
मेरी कुदाल और मेरी,
जरूरत नहीं रही
अंगरेज़ी जाने बगैर सम्भव नहीं होगा अब
खेत में उतरना
संसद भवन और विधान सभा में बैठकर
हँसते हैं
मुझ पर व्यंग्य कसते हैं
मेरे ही चुने हुए प्रतिनिधि
मैं जानता हूँ
बेदख़ल किए जाने के बाद
चौड़े डील और ऊँची सींग वाले हमारे बैल
सबसे पहले कसाइयों द्वारा ख़रीदे गये
कोई कसाई…
कर रहा है मेरी बेदख़ली का इंतजार
घर के छप्पर पर
मैंने तो चढ़ाई थी लौकी की लतर –
यह क्या फल रहा है?
मैने तो डाला था अदहन में चावल
यह क्या पक रहा है?
मैंने तो उड़ाये थे आसमान में कबूतर
ये कौन छा रहा है?
मुझे कहाँ जाना है-
किस दिशा में?
बरगद की छाँव के मेरे दिन कहाँ गये
नदी की धार के मेरे दिन कहाँ गये
माँ के आँचल-सी छाँव और दुलार के मेरे दिन कहाँ गये
सरसों के फूलों और तारों से भरा आसमान
मेरा नहीं रहा
धूप से
मेरी मुलाकात होगी धमन-भट्ठियों में
हवा से कोलतार की सड़कों पर
और मेरा गाँव?
मेरा गाँव बसेगा
दिल्ली मुम्बई जैसे महानगरों की कीचड़-पट्टी में
मैं गाँव से जा रहा हूँ
कुछ चीज़ें लेकर जा रहा हूँ
कुछ चीज़ें छोड़कर जा रहा हूँ
मैं गाँव से जा रहा हूँ
किसी सूतक का वस्त्र पहने
पाँच पोर की लग्गी काँख में दबाए
मैं गाँव से जा रहा हूँ
अपना युद्ध हार चुका हूँ मैं
विजेता से पनाह माँगने जा रहा हूँ
मैं गाँव से जा रहा हूँ
खेत चुप हैं
हवा ख़ामोश, धरती से आसमान तक
तना है मौन, मौन के भीतर हाँक लगा रहे हैं
मेरे पुरखे… मेरे पित्तर, उन्हें मिल गई है
मेरी पराजय, मेरे जाने की ख़बर
मुझे याद रखना
मैं गाँव से जा रहा हूँ।
                        -निलय उपाध्याय
निलय उपाध्याय

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