Saturday 14 April 2018

गुलशन मधुर की कविता -मैं शर्मसार हूं. माफ़ी का हक़दार नहीं!

मैं शर्मसार हूं. माफ़ी का हक़दार नहीं!
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मैं शर्मसार हूं
बहुत शर्मसार
बहुत से ज़्यादा शर्मसार
शर्मसार हूं कि हममें से जो शर्मसार हैं
तुम्हारे लिए कुछ न कर सके
तुम तक नहीं पहुंच सके
हम में से कोई वहां नहीं था
जब तुम्हें हमारी सबसे अधिक ज़रूरत थी

हां, इसीलिए मैं शर्मसार हूं
लेकिन उस देवस्थान के देवता कहां थे
जिस देवस्थान की उस अंधी कोठरी में
अंधी कोठरी से भी अंधे पिशाचों ने
अपना अश्लील अंधा नाच किया
पिशाच इसलिए
कि कोई जीवित आत्मा
इतनी निर्मम, इतनी बेदर्द कैसे हो सकती है

जब तुम्हारे आठ साल के नन्हे से तन को
मिट्टी की तरह रौंदा गया होगा
तुम्हारे आठ साल के नन्हे से मन पर
दहशत की और अविश्वास की
कितनी कुल्हाड़ियां चली होंगी
कितनी बार तुमने मां और पिता को
अम्मी और अब्बा को पुकारा होगा
जिन तक तुम्हारी आवाज़ नहीं पहुंच पाई

और ऐसा नहीं कि तुम्हारे दर्द की कराहें
आज भी फ़िज़ा में न हों
लेकिन हम उन्हें नहीं सुनते
चीख़ें कठुआ की हों या उन्नाव की
हम उन्हें नहीं सुनते
हम उन्हें नहीं सुनना चाहते
हम, जिन्होंने कानों में
उपेक्षा का सीसा भर रखा है

मैं शर्मसार हूं, मेरी नन्ही बच्ची
मेरी नन्ही आसिफ़ा!
वैसे तो तुम्हारा नाम कुछ भी हो सकता था
अनिता या अमला या आरती भी
अर्चना या वंदना या भारती भी
पर नाम के यहां मानी ही क्या हैं

मैं शर्मसार हूं
लेकिन माफ़ी का हक़दार नहीं हूं
माफ़ मत करना हमें
जो अपनी मुर्दा राजनीति के लिए
धर्म और राष्ट्र के नारे लेकर
सड़कों पर निकल पड़े हैं
कि फ़िज़ा में अब भी गूंजती
तुम्हारी आवाज़ हमें सुनाई न दे

मैं शर्मसार हूं, मेरी बच्ची
लेकिन माफ़ी का हक़दार नहीं

हमें कभी माफ़ मत करना
----- गुलशन मधुर

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