Saturday, 21 April 2018

गौहर रज़ा की कविता ज़ख्म

ज़ख़्म

जिस्म पर ज़ख़्म हैं,
आँखों में लहू उतरा है,
आज तो रूह भी लरज़ां  है मेरी,
ज़हन पत्थर की तरह,
सख़्त-ओ-बेजान सा, मफ़लूज  सा,
बेहिस, बेकार
इस में चीख़ों के सिवा
कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं

मुझ से मत पूछो मेरा नाम तो बेहतर होगा
मैं वही हूँ के जिसे
सारी बदमस्त बहारों को परखना था अभी
मैं वही हूँ के जिसे
फूल सा खिलना , महकना था अभी
झूमते गाते हुए झरनों की धुनों को सुन कर
मेरे पैरों को थिरकना था अभी
दरसगाहों  की खुली बाहों में जाना था मुझे
और एक शोले की मानिंद , धधकना  था मुझे

मैं वही हूँ जिसे
मंदिर की हदों के अंदर
तुम ने जूतों के तले रौंद दिया
मैं वही हूँ के जिसे
सारे भगवान खड़े,
चुप की तस्वीर बने
तकते रहे, तकते रहे, तकते रहे
और मेरे जिस्म का हर क़तरा-ए-ख़ून
थपकियाँ दे के सुलाने का जतन करता रहा
मुझ को समझाता रहा
मौत के पार हर एक ज़ुल्म सिमट जाएगा
तब कोई हाथ तुझे छू भी नहीं पाएगा

मैं वही हूँ जो दरिंदों के घने जंगल में
बैन करती रही इंसाफ़ के दरवाज़े पर
मुझ को मालूम नहीं था के तुम्हें
बाप का साया भी सर पर मेरे मंज़ूर नहीं

जिस्म पर ज़ख़्म हैं, गहरे हैं
बहुत गहरे हैं
मुझ से मत पूछो मेरा नाम तो बेहतर होगा

मादर-ए-हिंद हूँ मैं

वो जो ख़ामोश हैं शामिल हैं ज़िना में मेरी

-गौहर रज़ा

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