Thursday 26 April 2018

शैलजा पाठक की कविताएं

1
अस्पताल के किसी उदास सफ़ेद बिस्तर पर
नीली पीली कड़वी दवाइयाँ गटकते हुए
मैं जोर से मुठ्ठियों में कसती हूँ
तुम्हारा हाथ
कई बार मैं दिवार की टेक लगा कर लेती हूँ सुस्त लम्बी सांस
तुम्हारा हाथ मेरी पीठ पर तसल्ली लिखता है
मूर्खता तो ये देखो की पलट कर ली गई शीशियों की दवाई में मैं सोचती हूँ तुम्हारा कोई हिस्सा बस अभी छन से मेरी कमर में चुभेगा
एक मीठे दर्द से करवट बदलूंगी
और मुस्कराती हुई सो जाउंगी
सुबह मेरी चप्पले बिलकुल सीधी मिली मुझे
मैं बिस्तर से उठकर तुम्हारी हथेलियों पर चार कदम चलती हूँ
जरा जल्दी थक जा रही इन दिनों
हरे पर्दे की खिड़की को एकटक देखती हूँ
और एक यात्रा में तुम्हारे साथ चल पड़ती हूँ
कितना हरा होता है वो रास्ता जिसमे डूब कर निकल जाते हैं हम
एक फोटो में कुछ फूल हैं कुछ रास्ते
एक आसमान में घुप्प गहरे काले बादल
जमीन से कितने सटे से होते हैं न
तुम मुठ्ठी भर बादल उछालते हो
मैं छपाक से भींग जाती हूँ
नींद में सरक गई चादर को तुम गले तक ओढाते और कह जाते हो
जल्दी से ठीक हो जा लड़की
मेरी थपकी से भिजते तुम्हारे माथे की शिकन
मैं तो चूम के निकल जाती हूँ हर रोज़
नींद भर कसमसाते से तुम
प्रेम रूह में बसा हो न
तकलीफें हार मान जाती हैं ....
2
वो कहाँ गई / शैलजा पाठक
एक झूला था
झूले में लटका पीढ़ा था
पीढ़े पर बैठी गुड़िया थी
जो आसमान से ड़रती थी
जो आँखें मूंदे रहती थी
तुम पींग बढ़ाते थे जब जब
वो तुमसे लिपटी रहती थी
वो कहाँ गई ?
पूछो बरगद से पीपल से
पूछो आँगन की मिट्टी से
पूछो सखियों की कट्टी से
भैया से चाहो तो पूछो
अम्मा से पूछो पापा से
वो गई कहाँ ?
चाहो तो आँगन से पूछो
रूठे इस छाजन से पूछो
गूंगे पायल से भी पूछो
चूल्हे चौके से पूछो न
जो आग दहकती है उसमें
झुलसी उस चिड़िया से पूछो
वो कहाँ गई ?
दरवाजे की चौखट देखो
नन्हे निशान जो उभरे हैं
उस भूरी बिल्ली से पूछो
जो गुमसुम बैठी है छत पर
अलँगी पर उसकी चुनर है
वो राधा बनती थी अक्सर
फोटो के कान्हां से पूछो
वो कहाँ गई ?
एक झूला था
एक चूल्हा था
एक आँगन था
कुछ छमछम थी
एक गुड़िया थी
खो दी तुमनें
कोई रूठे
कोई छूटे
हम भूल उन्हें क्यों जाते हैं
क्यों वापस खोज नही लाते
क्यों मान मनौवल भूल गए
एक जंगल था
एक पीपल था
एक गुड़िया .....कबसे नही मिली...
ढूंढो उसको...
तुम चोटी करना भूलोगे
तुम रिबन चूड़ी भूलोगे
तुम काजल बिंदी भूलोगे
तुम भूलोगे लंहगा घाघर
तुम नदियां सागर भूलोगे
ये आधी दुनियाँ मुठ्ठी में
चुप चाप लिए खो जाएँगी....
3
प्रेम
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प्रेम
चूल्हे में सुलगता उपला
जले तो आग बुझे तो धुआं
गौरय्या के चोंच से फिसला दाना
घोंसले के रतजगे
प्रेम
लिखी हुई इबारत
जिसमें डूब गई एक नदी
घाट किनारे का आखिरी डगमगता दीया
सीढ़ियों से टकराती दुआएं
प्रेम
मेरे खाली दुपट्टे की छोर में बंधा एक गर्म दोपहर
एक सावली सहलाती छुवन सी याद
प्रेम
विगत के सपनें बीती सी बात
बार बार आँख में चुभता एक अदृश्य तिनका
गुलाबी शाम का सबसे सांवला आलिंगन...
3
बुझी लालटेन के शीशे काले होते हैं
कुछ शशिकांत नाम के लड़कों को लवंडा कहा गया
वो शादी बरात जचगी ऐसे अवसर पर बुलाये जाते
नचाये जाते लूट लिए और लूटा दिए जाते
मौसम का हिट गाना बजता
मैं रात भर न सोई रे नादान बालमा अरे बेईमान बालमा
घर में सबको पता है ये लड़का है लड़की के भेष में
पर इस भेष का नशा चढ़ता
शाम बढ़ती
लाइट लट्टू गैस पेट्रो की पीली रौशनी बढ़ती और जवानी चढ़ती
छोरा कमर के खुले जगह पर घर की अम्मा का हाथ धरवाता और मोटी रकम निकलवाता
हम छोटी लड़कियों ने ये नाच किसी चाची किसी भौजी के पीठ पीछे छिपकर देखा
छत पर रंग फैलता
गाना ढोलक पर बिजली सा तड़प कर कुलांचे भर कर नाचता शशिकांत
घर के मर्द दूर छतों पर बैठे इशारे करते
फब्तियां कसते
रुपया निकाल उसे अपने पास बुलाते
उसके पास जाते उसकी कमर में हाथ डालते
उसकी छाती पर हाथ मारते
उसके देह से उठती पाउडर की खुशबु में मदहोश वो भूल जाते
ये लड़का है कई बार खैनी खाते हुए रस्ते में मिला है
उसकी छाती में पैसा ठूसते
खम्भा पकड़ के रोईं मैं नादान बालमा से सुर ताल सब इस पल बेसुरे हो जाते
शशिकांत साड़ी ठीक करते आता
और महफूज औरत की टोली में रोता सा नाचने लगता
महफ़िल खत्म होती
वो धीरे धीरे अपने ऊपर पहनी औरत उतारता
बक्से में सहेजता
वो चाहता अपनी देह से उतारी उस औरत को गले लगाये
माग ले माफ़ी
सहेज ले घुंघुरू बिंदी की थाती
उनकी कमर के नाख़ून पर हल्दी मल दे
उनकी छातियों को नर्म फाहे सा सेंक दे
शशिकांत घण्टे भर की औरत था
शर्मिंदा रहता
आदमी होने की घिन से भरा रहता
मजबूरी उसे नचाती
वो रात भर नही सोता
वो ढोल पर गाती आवाजो के साये में सांस लेता
और महफ़िल की भीड़ में कूद कर मटकता
एक शाम घर से निकली टमटम पे बैठ कर मैं सैंया ने ऐसे देखा .....
हैरान होके रोईं मैं नादान बालमा अरे बेईमान बालमा .....
-शैलजा पाठक -
शैलजा पाठक

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